Atmadharma magazine - Ank 119
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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भाद्रपदः २४७९ः २४१ः
प्रगटी जाय छे. सिद्धदशा ते पर्यायनी शोभा छे, ते एक समय पुरती छे ने द्रव्यनी शोभा त्रिकाळ छे. एक
समयनी पर्यायमां शोभा क्यारे प्रगटे?....के त्रिकाळ शोभता द्रव्यनी सामे द्रष्टि करे त्यारे! जे आम समजे तेनुं
वलण द्रव्यस्वभाव तरफ वळी जाय, ते परथी पोतानी शोभा माने नहि एटले तेनी द्रष्टिमां पर प्रत्ये
वीतरागभाव थई जाय–आ रीते आमां धर्म आवे छे.
आत्मानुं ज्ञानपरिणमन घटतां घटतां ते ज्ञाननो सर्वथा अभाव थईने आत्मा जड थई जाय–एम कदी
न बने, अने ज्ञानपरिणमन वधीने केवळज्ञान थया पछी पण ज्ञान वध्या ज करे–एम पण न बने. वळी
आत्मामां जे अनंता गुणो छे तेमांथी एक पण गुण कदी घटतो के वधतो नथी. पर्यायमां वध–घट होवा छतां
त्रिकाळी द्रव्यगुण वधता–घटता नथी. हीणी अवस्था वखते आत्माना कोई गुणो घटी गया एम नथी, तेम ज
पूरी अवस्था प्रगटतां आत्माना गुणो वधी गया–एम पण नथी. एकरूप स्वरूपमां प्रतिष्ठाथी भगवान
आत्मा त्रिकाळी महिमावंतपणे शोभी रह्यो छे. आवा शोभता द्रव्यनी द्रष्टि करतां पर्यायमां वीतरागी शोभा
प्रगटी जाय छे; पण ते पर्याय उपर द्रष्टि नथी केमके ते पर्याय पोते अंतरमां वळीने त्रिकाळी द्रव्यनी शोभामां
समाई गई छे.
आत्मानी अगुरुलघुशक्ति वस्तुने त्रिकाळ स्वरूपमां टकवानुं कारण छे. पूर्वे निगोद अवस्था हती ते
वखते, साधक अवस्था वखते के सिद्धदशा वखते, सदाय आत्मा पोताना स्वरूपमां ज रहेलो छे. आत्माना
अनंता गुणो छे ते बधाय अगुरुलघुस्वभाववाळा छे; पर्यायमां हानि–वृद्धि भले हो पण अनंता गुणो पोताना
स्वरूपमां त्रणेकाळ एवा ने एवा स्थायी छे.–आवी स्वरूप–प्रतिष्ठा अनादि–अनंत छे. जेम जिनबिंब–प्रतिष्ठा
नवी पण थाय छे ने अनादिना जिनबिंब पण जगतमां छे, तेम भगवान आत्मा चैतन्य–जिनबिंब अनादिथी
पोताना स्वरूपमां ज प्रतिष्ठित छे अने तेना अवलंबने पर्यायमां नवी प्रतिष्ठा (एटले के निर्मळतारूपी शोभा)
प्रगटे छे. आ रीते सदाय स्वरूपमां प्रतिष्ठारूप आत्मानो अगुरुलघुस्वभाव छे. आ अगुरुलघुस्वभाव आखा
द्रव्यमां, तेना अनंत गुणोमां ने समस्त पर्यायोमां रहेलो छे. एकेक पर्याय पण पोतपोताना स्वभावथी
अगुरुलघु छे.
त्रिकाळ एवो ने एवो ध्रुव, स्वरूपनी प्रतिष्ठानुं कारण, बधा गुणोने समतोल राखवानुं कारण, बधा
गुणपर्यायोना आधारभूत एवो एक स्वभाव अनादिअनंत छे, ते बधा गुण–पर्यायमां अभेद छे, तेनी
शोभानो अपार महिमा छे. अहो! आवा महिमाथी जेने सम्यग्दर्शन थयुं, सम्यग्ज्ञान थयुं ते जीव एकली
पर्यायनी शोभामां बधुं अर्पी न द्ये, पण द्रव्य–गुणने साथे ने साथे राखे छे. अपूर्व सम्यग्दर्शन–ज्ञान थया, पण
ते क्यांथी थया? त्रिकाळी द्रव्यमां सामर्थ्य हतुं तेमांथी थया छे. माटे ते त्रिकाळी सामर्थ्यनुं अपार माहात्म्य छे.
आ प्रमाणे त्रिकाळीद्रव्य उपर द्रष्टि राखीने पर्यायनुं समतोलपणुं धर्मी जीव जाळवी राखे छे; अज्ञानी जीव
एकली पर्यायना महिमामां ज अटकी जाय छे, द्रव्यना ध्रुवमहिमानी तेने खबर नथी. श्री आचार्यदेव कहे छे के हे
भाई! तारा त्रिकाळी स्वरूपथी ज तारी शोभा छे–एम अमे बताव्युं, ते समजीने तुं एकली पर्यायना
बहुमानमां न अटकतां त्रिकाळी द्रव्यनुं बहुमान कर, एम करवाथी द्रव्यद्रष्टिमां सम्यग्दर्शनादि निर्मळ पर्यायो
सहेजे प्रगटी जशे अने तारो आत्मा पर्यायथी पण शोभी ऊठशे.
दरेक आत्मा अनंतशक्तिसंपन्न चैतन्यपरमेश्वर छे. पैसा–मकान–स्त्री वगेरे परद्रव्य के पुण्य ते
आत्मानी खरी संपत्ति नथी, चक्रवर्तीनो वैभव के इन्द्रपदनी विभूति तेना वडे आत्मानी महत्ता नथी,
पोतानी अनंतशक्तिरूप संपत्ति–के जे आत्माथी कदी पण जुदी न पडे–ते ज आत्मानी खरी संपत्ति छे, ते
ज आत्मानो खरो वैभव छे अने तेनाथी आत्मानी महत्ता छे. आवा स्वभावना बहुमानमां पर्यायमां
ज्ञानादि प्रगटे तेनुं अभिमान थतुं नथी; जेने चैतन्यनी महत्तानुं भान नथी ने जे तुच्छबुद्धि छे तेने ज
अल्प पर्यायनुं ने परनुं अभिमान थाय छे. पचीस–पचास वर्ष शरीरनो संयोग रहे तेने ज अज्ञानी
पोतानी आखी जिंदगी माने छे, पण आत्मा तो पोतानी अनंत शक्तिथी अनादि–अनंत जीवन जीवे छे,
ए ज तेनी आखी जिंदगी छे. वळी बहारमां लक्ष्मी वगेरेनो संयोग आवे त्यां तेने पोतानी संपत्ति
मानीने अज्ञानी अभिमान करे छे, पण ते संयोग तो अल्पकाळ रहीने चाल्यो जवानो छे, ते आत्मा साथे
कायम रहेवानो नथी माटे ते आत्मानी