Atmadharma magazine - Ank 119
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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धर्मकथानुं श्रवण
गवाननी के ज्ञानीनी वाणी सांभळतां जे जीव तेनो
आशय समजीने पोतामां अभेद स्वभावना अवलंबने धर्म
प्रगट करे छे तेणे ज खरेखर धर्मनी कथा सांभळी छे. जेने
आत्माना चैतन्यस्वभावनी द्रष्टि तो थई नथी अने राग तथा
भेदना आश्रयथी धर्म थवानुं माने छे ते तो एकला अधर्मनुं ज
पोषण करे छे; एवा जीवे धर्मनी कथा (एटले के शुद्धआत्मानी
वार्ता) खरेखर कदी सांभळी ज नथी पण बंधनी कथा ज
सांभळी छे; भगवाननी वाणी सांभळतो होय त्यारे पण
खरेखर तो ते बंधकथा ज सांभळी रह्यो छे, केम के तेनी रुचिनुं
जोर बंधभाव उपर छे पण अबंध आत्मस्वभाव तरफ तेनी
रुचिनुं जोर नथी. भले समवसरणमां बेठो होय अने तीर्थंकर
भगवाननी वाणी काने पडती होय, परंतु ते वखते जे
जीवनीमान्यतामां एम छे के ‘आवी सरस वाणी आवी तेने
लीधे मने ज्ञान थयुं, अथवा आ श्रवणना शुभरागथी मने
ज्ञान थयुं’–तो ते जीव खरेखर भगवाननी वाणी नथी
सांभळतो, पण बंधकथा ज सांभळे छे; भगवाननी वाणीनो
अभिप्राय ते समज्यो ज नथी. अनंतवार समवसरणमां जईने
अज्ञानीए शुं कर्युं? के बंधकथा ज सांभळी, पण धर्म कथा न
सांभळी. ‘निमित्तथी मारुं ज्ञान थतुं नथी, रागथी पण मारुं
ज्ञान थतुं नथी तेम ज मारो ज्ञानस्वभाव रागने करतो नथी,
हुं ज्ञानस्वभाव छुं, ज्ञानस्वभावना अवलंबने ज मारुं ज्ञान
थाय छे’–आवी ज्ञानस्वभावनी रुचि अने सन्मुखतापूर्वक जेणे
एकवार पण शुद्धआत्मानी वात ज्ञानी पासेथी सांभळी तेणे ज
धर्मकथानुं साचुं श्रवण कर्युं छे, ते जीव अल्पकाळमां मुक्ति
पाम्या वगर रहे नहीं.
–मानस्तंभ–प्रतिष्ठा–महोत्सवना प्रवचनमांथी.
*
–भूल सुधार–
आ अंकमां प्रूफरीडरनी असावधानीना कारणे पृष्ठ नंबर नाखवामां भूल थवाथी पृष्ठ नं. २३६ पछी
२४१ थी छपाई गयुं छे, तो ते पृष्ठनो नंबर २३७ समजीने आगळना पृष्ठ–नंबर सुधारी लेवा विनंति छे.