Atmadharma magazine - Ank 119
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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ः २२८ः आत्मधर्मः ११९
त्रिकाळी वस्तुस्वयंसिद्ध सत् छे तेम ते वस्तुनुं वर्तमानपणुं पण स्वयंसिद्ध सत छे. त्रिकाळी वस्तु स्वतंत्र अने
तेनुं वर्तमानपणुं परने लीधे–एम कदी न बने. त्रिकाळी सत्नी स्वतंत्रतामां तेना एकेक समयना सत्नी
स्वतंत्रता पण समाइ जाय छे, त्रिकाळी सत्थी वर्तमान सत् कांई जुदुं नथी. जो वस्तुना एक पण समयना
सत्ने पराधीन–एटले के परने लईने–मानो तो त्रिकाळी वस्तुनी स्वतंत्रता साबित नहि थाय; केमके एक
समयनी पर्याय पराधीन, तेम बीजा त्रीजा समयनी पर्यायो पण पराधीन,–एम करतां करतां त्रणेकाळ वर्ततुं
द्रव्य ज पराधीन ठरशे एटले के वस्तुस्वरूप ज सिद्ध नहि थाय. जगतना अज्ञानी जीवो जेम ईश्वरने जगत्कर्ता
माने छे तेम जैन संप्रदायमां रहीने पण जो कोई एम माने के कर्म जीवने रखडावे–अथवा आत्मा परनुं कांई
करे,–तो ते पण अन्यमतिनी जेम मिथ्याद्रष्टि ज छे. एक समयनी अवस्थामां विकार पण स्वतंत्रपणे पोते करे
छे–एम न जाणे अने ते विकार कर्मे कराव्यो एम माने, तो तेवी मान्यतावाळो जीव पण ईश्वरने जगत्कर्ता
माननारना जेवो ज छे, वस्तुना स्वतंत्र स्वभावनी तेने प्रतीत नथी.
वळी खरेखर परमार्थस्वभावथी एक समयना विकारनो हुं कर्ता अने ते मारुं कार्य–एम निश्चयथी
विकार साथे कर्ताकर्मपणुं जे माने तेने पण भगवान मिथ्याद्रष्टि कहे छे, केमके ते विकारने ज आत्मा माने छे,
विकारथी जुदा ज्ञायकस्वभावनुं तेने भान नथी. ‘आत्मा पोताना स्वभावथी विकारनो कर्ता नथी’ ए खरुं,
परंतु एनो अर्थ एवो नथी के ते विकार बीजो करावे छे. बीजो पदार्थ मने विकार करावे एम जे माने छे ते तो
बहु स्थूळ भूल करे छे, तेने तो व्यवहारनी एटले के वर्तमान पर्यायनी स्वतंत्रतानी पण खबर नथी. मारा द्रव्य
गुण ने पर्याय त्रणेथी हुं स्वतंत्र छुं, पर्यायमां विकार थाय छे ते पण मारी ज पर्यायना अपराधथी थाय छे;
परंतु मारा द्रव्य–गुणस्वभावमां विकार नथी माटे स्वभावथी हुं विकारनो कर्ता नथी ने विकार मारुं स्वरूप
नथी–आम समजीने विकाररहित ज्ञान–स्वभावनो अनुभव करे ते जीव धर्मी छे. जे विकाररूप अंशने पण
स्वतंत्र न कबूले तो त्रिकाळी अंशीने स्वतंत्र कबूलवानुं जोर ते कयांथी लावे? विकार पर करावे एम माने
अथवा तो विकारने ज पोतानुं कर्तव्य मानीने अटके तो ते मिथ्याद्रष्टि छे. विकार वखते य धर्मीनी द्रष्टिमां
ज्ञानस्वभावनी ज अधिकता रहे छे, ने अज्ञानी तो ते विकार वखते एकला विकारने ज देखे छे, विकारथी भिन्न
ज्ञानने ते देखतो नथी. जेणे पोतानो परमार्थस्वभाव द्रष्टिमां लीधो छे एवो धर्मी जीव जाणे छे के दयादि
शुभपरिणाम पण विकार छे, हुं तेनो जाणनार छुं पण हुं तेनो करनार के भोगवनार नथी. त्रिकाळी आत्माने
क्षणिक विकारनो कर्ता माने तेने आत्माना स्वभावनी खबर नथी एटले ते धर्मी नथी. त्रणकाळ त्रणलोकमां
एक तणखलाने पण तोडवानुं सामर्थ्य कोई आत्मामां नथी; जड परमाणुनी अवस्थामां चैतन्यनो अधिकार
नथी. अज्ञानी जीव परनुं भलुं–भूंडुं करी देवानुं माने छे परंतु पोताना अज्ञानभाव अने राग–द्वेष सिवाय
परमां तो ते कांई करी शकतो नथी. दरेक पदार्थमां पोत–पोतानी अनंती शक्ति होवा छतां, परनुं कांई करे एवी
तो शक्ति कोई द्रव्यमां जरापण नथी.
वस्तुस्थिति ज आवी छे के –
सकल वस्तु जगमें असहाई वस्तु वस्तुसां मिलै न कोई।
जीव वस्तु जान जग जेती सोऊ भिन्न रहै सब सेती।।५१।।
–नाटक–समयसारः सर्वविशुद्धि द्वार.
खरेखर जगतमां बधा पदार्थो स्वाधीन छे, कोई बीजानी सहायनी अपेक्षा राखता नथी, अने कोई
पदार्थ कोई पदार्थमां मळता नथी. ज्ञानस्वभावी जीव जगतना पदार्थोने जाणे छे पण ते बधा पदार्थोथी भिन्न
ज रहे छे. ज्ञाता बधाने जाणे पण कोईने फेरवे नहीं. त्रणकाळ त्रणलोकमां बधांय द्रव्यो असहायी छे; कोई
कोईने सहाय करे एवी शक्ति कोई द्रव्यमां नथी तेम ज कोई कोईनी सहायता मागे एवी पराधीनता पण कोई
द्रव्यमां नथी. जेनामां जे ताकात न होय ते कोई बीजो आपी शके नहि अने जेनामां जे शक्ति होय ते बीजानो
आशरो ल्ये नहि–आ महान सिद्धांत छे. वस्तुस्वभावनी आवी स्वतंत्रताना निर्णय वगर धर्म के शांति थाय
नहि, माटे शांतिनाथ भगवाननो दिव्यध्वनि कहे छे केः हे जीवो! स्वाधीनता विना शांति थाय नहि; तमारे
शांति जोईती होय तो तमारा आत्मामां ज ते शोधो. आत्मानी शांति पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायथी बहार न
होय. दुदुंभीना