Atmadharma magazine - Ank 120
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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आत्मधर्म: १२०: : २५५ :
भगवानी व्यवहार – स्तुति कोने होय
अने तेनुं निमित्त केवुं होय?
सर्वज्ञ भगवाननो परम भक्त... सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा... जेने आत्मानुं भान छे ते अंतरमां वीतरागी
स्वभाव सिवाय रागादि कोई भावने आदरतो नथी ने बाह्यमां निमित्त तरीके पण वीतरागी प्रतिमा सिवाय
बीजा कुदेवादिनुं बहुमान करतो नथी. श्री जिनेन्द्रभगवानना प्रतिमाजीनी मुद्रामां एकदम वैराग्यता देखावी
जोईए... ज्ञायकबिंब वीतरागीमुद्रा होवी जोईए... जेनी मुद्रा जोतां ज एम लागे के जाणे अनंतज्ञान,
अनंतदर्शन, अनंतआनंद ने अनंतबळमां लीनपणाथी भगवान तृप्त–तृप्त होय! –एवी वीतरागी प्रतिमा होय.
जो के वीतरागभाव तो पोताने पोतामांथी ज काढवो छे, पण शुभराग वखते ज्यारे बहारमां लक्ष जाय त्यारे
निमित्त तरीके एवी वीतरागी जिनमुद्रा ज होय. भगवान वीतराग छे, तेमनी प्रतिमा उपर शुंगार न होय,
तेमने आहार न होय. भगवाननी मुद्रा तो परम उपशमरसमां झूलती होय... जे जोतां ज ज्ञायकस्वभावी
आत्मा स्मरणमां आवे. भगवाननुं आवुं स्वरूप ओळख्या वगर भगवान प्रत्ये साची भक्ति ऊछळे नहि.
जेणे जीवनमां कदी वीतराग भगवानने जोया नथी ने जाण्या पण नथी तेने साची भक्ति क्यांथी आवशे?
ओळख्या विना कोनी भक्ति करशे? ते भगवाननी भक्तिना नामे शुभरागथी पुण्य बांधशे पण तेने धर्म नहि
थाय... संसारथी छुटकारो नहि थाय.
भगवानने देखीने अंतरमां वीतरागी आत्मानुं स्मरण कोण करशे? –के जेणे अंतरमां आत्माना
वीतरागस्वभावने नक्की कर्यो हशे ते. अल्पज्ञ प्राणी आत्माने केवळी भगवान जेवो साक्षात् देखी न शके पण
अंदरमां स्वानुभवथी आत्माना स्वभावनो निःशंक निर्णय बराबर करी शके छे. अने ते जीव भगवाननी
शांतमुद्रा देखीने आत्माना स्वभावने स्मरणमां लावे छे. अत्यारे महाविदेह क्षेत्रमां श्री सीमंधर परमात्मा
साक्षात् बिराजे छे, त्यां पण छद्मस्थने तेमनो आत्मा नजरे न देखाय पण निर्विकारी शांतदेह देखाय छे ते
उपरथी भगवाननी वीतरागतानुं अनुमान थई जाय छे. समवसरणमां सोनानुं सिंहासन, गंधकुटी अने कमळ
होय छे, तेनाथी पण चार चार आंगळ ऊंचे आकाशमां निरालंबीपणे भगवान बिराजे छे. जेम भगवाननो
आत्मा निरालंबी छे तेम तेमनो देह पण आकाशमां निरालंबीपणे बिराजे छे. भगवानना देह उपर वस्त्र नथी
होतां, हाथमां शस्त्र के माळा नथी होतां, बाजुमां स्त्री नथी होती; वळी भगवाननुं शरीर परम औदारिक छे,
तेमां रोगादि नथी होता, अशुचि नथी होती, क्षुधा के आहारादि नथी होता; मुद्रा उपर भय, शोक के हास्य पण
नथी होतुं. एकदम शांत निर्विकार वीतरागी ध्यानस्थ मुद्रा होय छे. वळी ईच्छा विना सहजपणे दिव्यध्वनि
सर्वांगेथी छूटे छे, तेमां सर्व पदार्थोना स्वरूपनुं कथन आवे छे. –आवा भगवानने जोतां चैतन्यबिंब
आत्मस्वभाव लक्षमां आवे छे के... अहो! आवो मारो आत्मस्वभाव. आम अविकारी आत्मस्वभावनुं स्मरण
अने बहुमान थतां संसारनुं स्मरण भुलाई जाय छे ने रागनी रुचि टळी जाय छे. –आनुं नाम भगवाननुं
साचुं स्तवन छे. आवा भानसहित धर्मात्माने वीतराग भगवानना प्रतिमाजी वगेरेनी भक्तिनो शुभराग
आवे तेने व्यवहार–स्तुति कहेवाय. ते व्यवहार–स्तुतिमां पण निमित्त तरीके वीतरागी जिनबिंब ज होय.
रागसहित कुदेवादिनी भक्ति करे तेने तो व्यवहारस्तुति पण न कहेवाय, ते तो मिथ्यात्व छे.
अहीं कोई अज्ञानी एम पूछे के, ‘व्यवहारनयने तो असत्यार्थ कह्यो छे अने भगवाननुं शरीर तथा
प्रतिमा तो जड छे, तो तेनी स्तुति शा माटे करवी? ’ तो तेने अहीं आचार्यभगवान कहे छे के अरे मूढ! अमे
व्यवहारनयने सर्वथा असत्यार्थ कह्यो नथी. साधकजीवने वच्चे शुभराग आवे छे त्यारे कोईवार भगवान प्रत्ये
लक्ष जाय छे; त्यां छद्मस्थ जीवने पोतानो के भगवाननो आत्मा केवळीनी जेम प्रत्यक्ष तो देखातो नथी, शरीर
देखाय छे. त्यां जेने अंतरमां वीतरागी आत्मानुं लक्ष छे तेने शांतभावरूप जिनमुद्रा देखतां पोताने पण तेवी
भावना थाय छे. प्रतिमानी वीतरागीमुद्रा जोतां अंतरंगमां आत्माना वीतराग–स्वभावनो निर्णय थाय छे. ए
रीते साधक जीवने परमार्थना भानसहित व्यवहारस्तुति पण वच्चे होय छे, तेनो जो सर्वथा निषेध करे तो ते
अज्ञानी छे, तेम ज तेने ज जो धर्म मानी ल्ये तो ते पण अज्ञानी छे. आमां एम न समजवुं के प्रतिमा वगेरे
पर पदार्थना कारणे जीवने शुभराग थाय छे. पर पदार्थने कारणे शुभराग थतो नथी, पण साधकने पोतानी
योग्यताना काळे ते प्रकारनो शुभराग होय छे ने तेमां वीतरागी जिनबिंब वगेरे योग्य निमित्त होय छे–एम
समजवुं.
[–प्रवचनमांथी]