Atmadharma magazine - Ank 120
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: २५८ : : आसो: २४७९
• ‘सर्वज्ञतां’ कहेतां ज बधा पदार्थोनुं त्रणेकाळनुं क्रमबद्ध परिणमन सिद्ध थई जाय छे. जो पदार्थमां
त्रणेकाळनी पर्यायो चोक्कस क्रमबद्ध न थती होय, ने आडीअवळी थती होय तो सर्वज्ञता ज सिद्ध न
थई शके; माटे सर्वज्ञता कबूल करनारे ए बधुं कबूल करवुं ज पडशे.
* * *
• आत्मामां सर्वज्ञत्वशक्ति छे ते ‘आत्मज्ञानमयी’ छे. आत्मा परनी सन्मुख थईने परने नथी
जाणतो पण आत्मसन्मुख रहीने आत्माने जाणतां लोकालोक जणाई जाय छे, माटे सर्वज्ञत्वशक्ति
आत्मज्ञानमय छे. जेणे आत्माने जाण्यो तेणे सर्व जाण्युं.
* * *
• हे जीव! तारा ज्ञानमात्र आत्माना परिणमनमां अनंतधर्मो एक साथे ऊछळी रह्या छे, तेमां ज
डोकियुं करीने तारा धर्मने शोध, क्यांय बहारमां तारा धर्मने न शोध. तारी अंर्तशक्तिना अवलंबने
ज सर्वज्ञपणुं प्रगट थशे.
* * *
• जेणे पोतामां सर्वज्ञता प्रगट थवानी ताकात मानी ते जीव देहादिनी क्रियानो ज्ञाता रह्यो; परनी
क्रियाने तो फेरववानी वात दूर रही पण पोतानी पर्यायनी आघी–पाछी फेरववानी पण बुद्धि तेने
होती नथी. ज्ञान क्यांय फेरफार करतुं नथी, मात्र जाणे छे. जेणे आवा ज्ञाननी प्रतीत करी तेने
स्वसन्मुखद्रष्टिने लीधे पर्याये–पर्याये शुद्धता वधती जाय छे ने राग छूटतो जाय छे. आ रीते
ज्ञानस्वभावनी द्रष्टि ते मुक्तिनुं कारण छे.
* * *
• ‘सर्वज्ञता’ कहेतां दूरना के नजीकना पदार्थोने जाणवामां भेद न रह्या; पदार्थ दूर हो के नजीक हो तेने
लीधे ज्ञान करवामां कांई फेर पडतो नथी. दूरना पदार्थने नजीक करवा के नजीकना पदार्थने दूर करवा
ते ज्ञाननुं कार्य नथी, पण नजीकना पदार्थनी जेम ज दूरना पदार्थने पण स्पष्ट जाणवानुं ज्ञाननुं कार्य
छे. ‘सर्वज्ञता’ कहेतां बधाने जाणवानुं आव्युं पण तेमां क्यांय ‘आ ठीक ने आ अठीक’ –एवी बुद्धि
के राग–द्वेष करवानुं न आव्युं.
* * *
• केवळीभगवानने समुद्घात थवा पहेलांं तेने जाणवारूप परिणमन थई गयुं छे, सिद्धदशा थया पहेलांं
तेनुं ज्ञान थई गयुं छे; भविष्यनी अनंत–अनंत सुखपर्यायोनुं वेदन थया पहेलांं सर्वज्ञत्वशक्ति तेने
जाणवारूपे परिणमी गई छे. आ रीते ज्ञान त्रणेकाळनी पर्यायोने जाणी लेवाना सामर्थ्यवाळुं छे, पण
तेमां कोई पर्यायना क्रमने आघोपाछो करीने भविष्यमां थनारी पर्यायने वर्तमानमां लावे–एम बनी
शकतुं नथी.
* * *
• श्री आचार्यदेव सर्वज्ञत्वशक्ति ओळखावे छे के हे जीव! तारा ज्ञाननुं कार्य तो मात्र ‘जाणवुं’ ते ज
छे. राग–द्वेष करवानुं तो तारुं स्वरूप नथी अने अधूरुं जाणवारूपे परिणमे एवुं पण तारा ज्ञाननुं
मूळस्वरूप नथी, सर्वने जाणवारूपे परिणमे एवुं तारा ज्ञाननुं पूर्ण सामर्थ्य छे. –आवी तारी
ज्ञानशक्तिने ओळख तो सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थईने अपूर्व आंनदनो अनुभव थाय.
* * *
• मारा आत्मामां सर्वज्ञत्वशक्ति छे–एम जेणे स्वीकार्युं तेणे पोताना स्वभावमां राग–द्वेषनो अभाव
पण स्वीकार्यो, केमके ज्यां सर्वज्ञता होय त्यां राग–द्वेष होता नथी अने ज्यां राग–