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द्वेष होय त्यां सर्वज्ञता होती नथी. तेथी सर्वज्ञस्वभावने स्वीकारनार कदी राग–द्वेषथी लाभ मानी
शके नहि, अने रागद्वेषथी लाभ माननार सर्वज्ञस्वभावने स्वीकारी शके नहि.
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• ज्ञानी कहे छे के तणखलाना बे कटका करवानी शक्ति पण अमे धरावता नथी;–एनो आशय एम छे
के अमे तो ज्ञायक छीए, एक परमाणुमात्रने पण फेरववानुं कर्तृत्व अमे मानता नथी. तणखलाना बे
कटका थाय तेने करवानी अमारी के कोई आत्मानी ताकात नथी पण जाणवानी ताकात छे, –अने ते
पण एटलुं ज जाणवानी ताकात नथी पण परिपूर्ण जाणवानी ताकात छे.
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• जे जीव पोताना ज्ञाननी पूर्ण जाणवानी शक्तिने माने तथा तेनो ज आदर अने महिमा करे ते जीव
अधूरी दशाने के रागने पोतानुं स्वरूप न माने तथा तेनो आदर अने महिमा न करे, एटले तेने
ज्ञानना उघाडानो अहंकार क्यांथी थाय? ज्यां पूर्ण स्वभावनो आदर छे त्यां अल्पज्ञाननो अहंकार
होतो ज नथी.
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• ज्ञानस्वभावी आत्मा संयोग विनानो तेम ज परमां अटकवाना भाव विनानो छे, कोई बीजा वडे तेनुं
मान के अपमान नथी. आत्मानो ज्ञानस्वभाव पोते पोताथी ज परिपूर्ण अने सुखथी भरपूर छे.
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• सर्वज्ञता एटले एकलुं ज्ञान... पूरेपूरुं ज्ञान. एवा ज्ञानथी भरेला आत्मानी प्रतीत करवी ते धर्मनो
मूळ पायो छे.
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• मारामां ज सर्वज्ञपणे परिणमवानी शक्ति छे, तेनाथी ज मारुं ज्ञान परिणमे छे–एम न मानतां
शास्त्र वगेरे निमित्तने लीधे मारुं ज्ञान परिणमे छे–एम जेणे मान्युं तेणे संयोगथी लाभ मान्यो,
एटले तेने संयोगमां सुखबुद्धि छे; केम के जे जेनाथी लाभ माने तेने तेमां सुखबुद्धि होय ज.
चैतन्यबिंब स्वतत्त्व सिवाय बीजाथी लाभ मानवो ते मिथ्याबुद्धि छे.
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• ‘मारो आत्मा ज सर्वज्ञता अने परम सुखथी भरेलो छे’–एवी जेने प्रतीत नथी ते जीव भोगहेतु
धर्मने एटले के पुण्यने ज श्रद्धे छे; चैतन्यना निर्विषय सुखनो तेने अनुभव नथी एटले ऊंडाणमां
तेने भोगनो ज हेतु पड्यो छे.
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• सर्वज्ञत्वपणे परिणमवानी आत्मानी ज शक्ति छे तेनो आश्रय करवाने बदले, निमित्तना आश्रये
ज्ञान खीले, –एम जे माने छे तेने पांच इंन्द्रियना विषयोमां सुखबुद्धि टळी नथी; निमित्त अने
विषयो बंने एक छे. निमित्तना आश्रयथी लाभ माननार के विषयोमां सुख माननार–ए बंनेनी
एक ज जात छे. तेओ आत्मस्वभावनो आश्रय करीने न परिणमतां संयोगनो आश्रय करीने ज
परिणमी रह्या छे; भले शुभभाव हो तोपण तेमने विषयोनी रुचि टळी नथी ने स्वभावना
अतीन्द्रियसुखनी रुचि थई नथी; तेओए पोताना आत्माने ध्येयरूप कर्यो नथी पण विषयोने ज
ध्येयरूप बनाव्या छे.
• पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभाव सिवायना बधाय पदार्थो परविषयो छे, तेमना आश्रयथी जे लाभ
माने तेने परविषयोनी प्रीति छे. जे पोताना स्वभावनी प्रतीत करे तेने कोई परविषयोमां
सुखबुद्धि रहेती नथी.
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