Atmadharma magazine - Ank 120
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: २४८ : : आसो: २४७९
रचना थाय, पण विकारनी रचना न थाय; हुं छुं तो रागपर्याय छे–एम नहि परंतु हुं छुं तो ज्ञानपर्याय छे, हुं
छुं तो मारे लीधे आनंद अने चारित्रनी निर्मळपर्याय छे, एटले हुं कर्ता अने श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रनी निर्मळ
पर्याय थई ते मारुं कर्म, –आम स्वभावद्रष्टिमां धर्मी जीव निर्मळ पर्यायनो ज कर्ता छे. हुं कोण ने मारुं खरुं
कार्य शुं–ए वात समजवामां जीवनी अनादिनी भूल छे. जो आ वात समजे तो ज अनादिनी भूल टळे ने
अपूर्व धर्म थाय.
आचार्यभगवान कहे छे के–
हे भाई! तारे तारुं कल्याण करवुं छे ने! तो अमे तने कल्याणनो रस्तो बतावीए छीए.
प्रथम तुं नक्की कर के हुं आत्मा छुं;
मारो जाणवा–देखवानो स्वभाव छे.
राग करवो ते मारो स्वभाव नथी तेम ज शरीरने के जड कर्मने परिणमाववानो पण मारो स्वभाव
नथी. में विकार करीने जडकर्मने बांध्युं–एवी जेनी मान्यता छे तेनी द्रष्टि मिथ्या छे, विकारथी जुदो मारो
ज्ञानस्वभाव छे एम ते जाणतो नथी.
अज्ञानी जीव ‘हुं ज्ञानस्वभाव छुं’ एवी समजण चूकीने, अज्ञानभावे बहु तो विकारनो कर्ता थाय, पण
जडकर्मनो कर्ता तो अज्ञानभावे पण नथी.
जडकर्मनी जेम शरीर, भाषा, मकान वगेरेनो कर्ता पण आत्मा कदी थई शकतो नथी.
–माटे हे जीव! तुं समज के हुं ज्ञानस्वभाव छुं ने ज्ञान ज मारुं कार्य छे; आम समजीने ज्ञानस्वभावना
अवलंबने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रना निर्मळभावे परिणमवुं ते मोक्षमार्ग छे ने ते ज तारा कल्याणनो उपाय छे.
हुं ज्ञानस्वभाव छुं–एवी जेने खबर नथी ते जीव परनुं अभिमान करीने अनंता राग–द्वेष करे छे. ज्यां
पोतनी ईच्छा प्रमाणे परमां कांईक थाय त्यां अज्ञानी अभिमानथी कहे छे के अमे आम करी दीधुं! अने ज्यां पोताना
धार्या करतां विरुद्ध थाय त्यां एम कहे छे के ‘भाई! एमां आपणुं शुं चाले? ते कांई आपणा हाथनी वात छे!’ पण
अरे भाई! परमां तारुं नथी चालतुं तो पछी ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करीने बधे ठेकाणे जाणनार ज रहे ने! मफतनो
परनां अभिमान शा माटे करे छे? ‘हुं तो जाणनार छुं ने परना कार्य परने लीधे ज थाय छे, तेनो कर्ता हुं नथी’–एम
समजी, बधे ठेकाणेथी द्रष्टि उठावी ले ने तारा ज्ञानस्वभावमां द्रष्टि कर, –तो अपूर्व कल्याण थाय.
जगतनी बधी चीजो पोताना स्वभावथी ज बदले छे, एटले दरेक चीज पोते ज पोताना कार्यनी कर्ता छे,
कोई बीजो तेनो कर्ता नथी. जगतनी जड वस्तुओमां पण बदलवानी ताकात तेना पोताना स्वभावथी ज छे.
(१) जो तेनामां स्वभावथी ज परिणमवानी शक्ति न होय तो कोई बीजो तेने कोई रीते परिणमावी
शके नहि. अने
(२) जो तेनामां ज स्वयं परिणमवानी शक्ति छे तो ते बीजा कोई परिणमावनारनी अपेक्षा राखती नथी.
अहो! जडनी पर्याय जडथी थाय छे, हुं तो जाणनार–देखनार ज छुं–एम समजतां अनादिनी आळस
तूटीने स्वभावनो अपूर्व उद्यम जागे छे. अज्ञानीने एम लागे छे के ‘आत्मा परनो कर्ता नथी–एम समजशुं तो
आळशुं थई जईशुं! ’ पण अरे मूढ! परना मिथ्या अहंकारने लीधे तने ज्ञानस्वभावनो उत्साह नथी आवतो
ते ज मोटो प्रमाद छे. हुं ज्ञानस्वभावनो छुं ए वात चूकीने, हुं परनो कर्ता एम मान्युं तेथी अनादिथी पोताना
स्वरूपमां अनुत्साह छे ते ज महा प्रमाद छे. हुं ज्ञानस्वभाव छुं–एम समजे तो पर सन्मुख वलण छूटीने
स्वभाव तरफनो अपूर्व उत्साह अने उद्यम जागे.–माटे आ अनादिनो प्रमाद टाळवानी वात छे.
शरीरादिने चलावे के जडकर्मने उत्पन्न करे एवो तो आत्मानो स्वभाव नथी अने ते जडकर्मने
ऊपजवामां निमित्त थाय–एवो पण आत्मानो स्वभाव नथी; आत्मा तो ज्ञानस्वभावी छे. आत्मानो
ज्ञानस्वभाव कर्मने निमित्त पण नथी. जडकर्मनुं निमित्त तो विकार छे; एटले जे जीव ज्ञानस्वभावनी द्रष्टि
चूकीने विकारनो कर्ता थाय छे ते ज पोताने कर्ममां निमित्त माने छे. निमित्त थवा उपर जेनी द्रष्टि छे तेने
निर्विकारी ज्ञानानंदस्वभाव उपर द्रष्टि नथी. समकितीने तो एवी द्रष्टि छे के हुं तो ज्ञानस्वभाव ज छुं; जडकर्म
अने तेना निमित्तरूप विकार–ते बंने हुं नथी. –आवी स्वभावद्रष्टिने लीधे तेने रागरहित