आत्मबुद्धि छूटी जाय छे. स्वभावनी द्रष्टिथी मारा आत्मामां विकार छे ज नहि, माटे हुं विकारनो कर्ता नथी; हुं
तो ज्ञानस्वरूप छुं–आ प्रमाणे ओळखीने विकाररहित स्वभावना श्रद्धा–ज्ञान करवां ते धर्मी आत्मानुं कार्य छे,
तेना वडे धर्मी जीव ओळखाय छे, अने भगवानना उपदेशनुं पण ए ज तात्पर्य छे.
तो अनादिथी रखडी ज रह्या छे एटले तेनी शुं वात करवी? जगतमां संसार, मोक्ष अने मोक्षनो मार्ग–बधुं
अनादिअनंत छे, तेमांथी एकेयनो कदी सर्वथा अभाव थवानो नथी. हा, एक जीव पोताना आत्मामांथी
संसारनो अभाव करीने मोक्षदशा प्रगट करे छे, तेनी अपेक्षाए संसारनो अंत अने मोक्षनी आदि छे.
चेतन्यतत्त्वने जे जीव समजे तेनी मुक्ति थाय छे. बाकी रखडवानी अहीं वात नथी. भगवाननी वाणी जीवोने
मोक्षमार्ग बतावनारी छे, –बीजी रीते कहीए तो अनादिकाळथी जे ऊंधा भावे संसारमां रखडयो तेनी गुलांट
मारीने मोक्षमार्गनो सवळो भाव जे जीव प्रगट करे तेणे ज भगवाननी वाणी झीली छे.
अभिमान थतुं नथी. मानना विकल्पनेय ज्ञानी पोतानुं कार्य मानता नथी. जुओ, तीर्थंकरनामकर्म कोने बंधाय?
–अज्ञानीने न बंधाय; अज्ञानी तो चैतन्यना महिमाने चूकीने क्षणेक्षणे जगतना पदार्थोनुं अभिमान करे छे.
ज्ञानी पोताना ज्ञाताद्रष्टा स्वभावने जाणे छे ने मानने पोतानुं मानता नथी, पोताना चिदानंद स्वभाव सिवाय
बीजे क्यांय तेने धणीपणुं रह्युं नथी एटले जगत पासेथी मान लेवानुं मानता नथी. अहो! मारा अनंत
चैतन्यस्वभावनुं मान मारी पासे ज छे, जगतना पदार्थोमां मारुं मान नथी; जगतमां सर्वोत्कृष्ट बहुमान योग्य
मारो आत्मा ज छे, कोई परने लीधे मारा आत्मानो महिमा नथी, मारो महिमा मारा स्वभावथी ज छे. –आ
प्रमाणे निजस्वभावना महिमाना जोरे मानने गाळीने निर्मानता थई गई अने निर्मळ स्वरूपमां समातां
समातां कांईक राग बाकी रही गयो त्यां ते धर्मात्माने, त्रिभुवननाथ थाय एवुं तीर्थंकरनामकर्म बंधाई जाय छे,
ने ईन्द्रो तेना चरणमां शिर झुकावे छे. मान मांगे तेने मळतां नथी; अज्ञानी परनुं अभिमान करे छे ने परथी
पोतानी मोटाई माने छे, तेने तीर्थंकरनामकर्म बंधातुं नथी. साचुं मान तो पोताना परिपूर्ण स्वभावनी भावना
करवी तेमां ज छे, ज्ञानीने चैतन्यस्वभावना महिमा पासे परनो अहंकार ऊडी गयो छे, ते त्रणलोकना नाथ
थाय छे.
ने निर्मळपर्याय मारुं कर्म, तेनुं साधन पण हुं ज छुं, संप्रदान पण हुं ज छुं, तेम ज अपादान अने अधिकरण
पण हुं ज छुं; परमार्थे द्रव्य–पर्यायनी अभेदतामां तो कर्ता–कर्म वगेरे भेदना विकल्प पण नथी, –हुं एक अखंड
ज्ञायक छुं. ’ –आम धर्मीनी द्रष्टि पोताना अभेद स्वभावमां पडी छे, ने ते द्रष्टिमां निमळ निर्मळ पर्यायो थती
जाय छे ते धर्मीनुं धर्मकर्तव्य छे. आत्माना धर्म कर्तव्यमां बहारना कोई साधनो नथी.
रागनुं कर्तृत्व रह्युं नथी. पर्यायबुद्धिवाळो अधर्मी जीव देव–गुरु–शास्त्र वगेरे परने देखीने तेमना कारणे
बहुमाननो भाव थवानुं माने छे, देव–गुरु–शास्त्र सारां छे माटे मने तेमना बहुमाननो