Atmadharma magazine - Ank 121
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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तुं सावधान था. सावधान थईने एम जाण के अहो! हुं तो चैतन्यस्वरूप आत्मा छुं, पूर्वे पण हुं चैतन्यस्वरूप ज
हतो. जड शरीर माराथी सदाय अत्यंत भिन्न छे; मारुं चैतन्यस्वरूप जडथी भिन्न ज रह्युं छे–आम पोताना
चैतन्यस्वरूपने जाणीने तुं प्रसन्न था....आनंदमां आव. तारा चैतन्यस्वरूपने ओळखतां ज तने अंतरमां अपूर्व
प्रसन्नता अने आनंद थशे. ‘हुं चैतन्यपरमेश्वर छुं, जेवा परमात्मा छे तेवुं ज मारुं स्वरूप छे, मारुं कांई बगडयुं
नथी–’ आम समजी तारुं चित्त उज्जवळ कर...हृदयने ऊजळुं कर....प्रसन्न था अने आह्लाद कर के– अहो! आवो
मारो आनंदघन चैतन्यस्वभाव! भाई! आम करवाथी तारुं अनादिनुं मिथ्यात्व टळी जशे ने तारा भवभ्रमणनो
अंत आवी जशे.
*
[४]
आत्मा चैतन्यस्वरूप छे ने रागादि भावो तो बंधस्वरूप छे. हे भाई! तारा आत्माने बंधननी उपाधिनुं
अति निकटपणुं होवा छतां, बंध साथे एकमेकपणुं नथी; रागादि भावो तारा चैतन्यस्वभावरूप थई गया नथी.
ज्ञानने अने रागने ज्ञेयज्ञायकपणुं छे तेम ज एकक्षेत्रावगाहपणुं छे, परंतु तेमने एकपणुं नथी; ज्ञाननो अने रागनो
स्वभाव भिन्न भिन्न छे. आम होवा छतां जे जीव ज्ञान अने रागने एकमेकपणे ज मानी रह्यो छे तेने आचार्यदेव
कहे छे के अरे दुरात्मा! हाथी वगेरे पशु जेवा स्वभावने तुं छोड छोड! जेम हाथी लाडवा अने घासना स्वादनो
विवेक कर्या वगर ते बंनेने भेगां करीने खाय छे, तेम तुं पण जड–चेतननो विवेक कर्या वगर बंनेने एकपणे
अनुभवे छे,–तेने तुं छोड, अने परम विवेकथी भेदज्ञान करीने तारा चैतन्यस्वरूप आत्माने जडथी ने विकारथी
अत्यंत जुदो तुं जाण. अहीं ‘हे दुरात्मा!’ एम कह्युं तेनो अर्थ एम छे केः अरे भाई! चैतन्य स्वरूपने चूकीने जड
शरीरने पोतानुं मानवारूप जे मिथ्यात्वभाव छे ते दुरात्मपणुं छे तेने तुं छोड, अने “हुं चैतन्यस्वरूप सदा
उपयोगमय आत्मा छुं”–एम समजीने तुं पवित्रात्मा था.–आ रीते दुरात्मापणुं छोडीने पवित्र–आत्मपणुं प्रगट
करवानी प्रेरणा करी छे.
*
[प]
श्री सर्वज्ञ भगवाननी साक्षी आपीने आचार्यदेव कहे छे के अरे जीव! सर्वज्ञ भगवाने तो जीवने नित्य
उपयोगस्वभावरूप जोयो छे. सांभळनार शिष्य व्यवहारे तो सर्वज्ञ भगवानने माननारो छे तेथी आचार्यदेव
सर्वज्ञनी साक्षी आपीने तेने समजावे छेः हे भाई! आपणा सर्वज्ञ भगवान आखा विश्वने प्रत्यक्ष जाणनारा छे, ते
सर्वज्ञ भगवानना ज्ञानथी तो एम प्रसिद्ध करवामां आव्युं छे के जीवद्रव्य सदा उपयोगमय छे, अने शरीरादिक तो
अचेतन छे जो तुं एम कहे छे के ‘शरीरादिक पुद्गलद्रव्य मारां छे’–तो हे भाई! सर्वज्ञभगवाने सदा चेतनरूप
जोयेलुं एवुं जीवद्रव्य ते अचेतन क्यांथी थई गयुं के जेथी तुं पुद्गलद्रव्य पोतानुं माने छे! जेम प्रकाशने अने
अंधकारने एकता नथी पण अत्यंत जुदापणुं छे, तेम चैतन्यस्वरूप आत्माने अने जडने एकता नथी पण अत्यंत
जुदापणुं छे. जेम जड साथे एकता नथी तेम रागादिक साथे पण चैतन्यस्वरूपनी एकता नथी, चैतन्यस्वरूप रागथी
पण जुदुं छे, चैतन्यने अने रागने एकमेकपणुं थयुं नथी. माटे हे शिष्य! तुं तारा आत्माने शरीरथी अने रागथी
भिन्न चैतन्यस्वरूप
ः १०ः
आत्मधर्मः १२१ः