Atmadharma magazine - Ank 121
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 12 of 25

background image
जाण, चैतन्यस्वरूप आत्मा एक ज तारुं स्वद्रव्य छे–एम तुं अनुभव कर.
जेमनुं ज्ञान सर्व प्रकारे चोख्खुं छे एवा सर्वज्ञभगवाने पोताना दिव्य ज्ञानमां एम जोयुं छे के आत्मा सदा
उपयोगस्वरूप छे. जे जीव आनाथी विपरीत मानतो होय तेणे खरेखर सर्वज्ञभगवानने ओळख्या नथी. जो सर्वज्ञ
भगवानना ज्ञाननो निर्णय करे तो, आत्मा सदा उपयोगस्वरूप छे–एवो निर्णय पण थई ज जाय.
सर्वज्ञभगवानना आत्मामां ज्ञान परिपूर्ण छे ने राग जराय नथी–एटले तेनो निर्णय करतां ज्ञान अने रागनी
भिन्नतानो निर्णय थई ज जाय छे. आ रीते, हे भाई! तारा चैतन्यस्वरूप आत्माने रागथी पण भिन्नता छे तो
पछी शरीरादि मूर्त द्रव्यो साथे तो एकपणुं कयांथी होय? माटे ते एकपणानी भ्रमणा छोडीने, ‘हुं चैतन्य ज छुं’
एम तुं अनुभव कर.
*
[६]
जेम पिता बे भागला पाडीने पुत्रने समजावे के जो भाई! आ तारो भाग; तारो भाग तुं लई ले ने राजी
था. तेम अहीं जीवद्रव्य अने पुद्गलद्रव्य एवा बे भाग पाडीने आचार्यप्रभु समजावे छे के जो भाई! चैतन्यद्रव्य
नित्य उपयोगस्वभावरूप छे ते तारो भाग छे, अने ‘नित्य उपयोगस्वभाव’ सिवायनुं बीजुं बधुंय पुद्गलद्रव्यनो
भाग छे. हे जीव! हवे तुं तारो भाग लई ले अने राजी था. उपयोगस्वभाव–ज्ञायकभाव सिवाय बीजा बधायमांथी
आत्मबुद्धि छोडीने, आ एक ज्ञायकभावने ज तारा स्वरूपपणे अनुभव.....तेमां ज एकाग्र था.
*
[७]
जेम मीठामांथी पाणी थाय छे ने पाणीमांथी मीठुं थाय छे, तेम जीव कदी पुद्गलरूप थतो नथी ने पुद्गल
कदी जीवरूप थतुं नथी. माटे मीठाना पाणीनी जेम जीव–अजीवनुं एकपणुं नथी, पण प्रकाश अने अंधकारनी जेम
जीव–अजीवनुं भिन्नपणुं छे. जीव तो चैतन्यप्रकाशमय छे ने पुद्गल तो जड–आंधळुं छे, तेमने अत्यंत भिन्नता छे.
अहीं ‘मीठानुं पाणी’ एवुं द्रष्टांत आपीने आचार्यदेव कहे छे के हे जीव! जेम मीठुं ओगळीने पाणी रूपे थई जाय
छे, तेम तारी परिणति अजीवने पोतानुं मानीने ते तरफ वळवा छतां ते अजीवनी साथे तो एकाकार एकमेक थई
शकती नथी, माटे ते अजीवथी तारी परिणतिने अंतरमां उपयोगस्वरूप जीवद्रव्य तरफ वाळ तो त्यां ते एकाकार
थाय छे, माटे ते ज तारुं स्वरूप छे एम तुं जाण. तारी परिणति कयांय पर साथे तो एकरूप थई शकती नथी, तारा
उपयोगस्वरूप जीवद्रव्यमां ज ते एकाकार थाय छे, माटे ‘आ उपयोगस्वरूप जीवद्रव्य ज हुं छुं’–एम उपयोगस्वरूप
जीवद्रव्यने एकने ज स्वद्रव्यपणे अनुभवीने तेमां ज तारी परिणतिने एकाकार कर ने परद्रव्यने पोतानुं मानवारूप
मोहने हवे तो तुं छोड रे छोड!
*
[८]
देह ते हुं छुं, देहनी क्रिया मारी छे–एम जे अज्ञानी माने छे तेने आचार्यदेव कहे छे के अरे मूढ! जीव तो
उपयोगस्वरूप छे अने शरीरादि पुद्गल तो जडस्वरूप छे; उपयोगस्वरूप जीवने अने जडस्वरूप पुद्गलने एकपणुं कदी
बनी शकतुं नथी. तुं कहे छे के चैतन्यमय जीव ‘हुं’ छुं ने शरीरादि अजीव पण ‘हुं’ छुं,–आम चैतन्य तेम ज जड
एवा बंने द्रव्योपणे तुं पोताने माने छे. पण भाई रे! तुं एक, ते जीव अने अजीव एवा बंने द्रव्योमां कई रीते रही
कारतकः २४८०ः ११ः