Atmadharma magazine - Ank 121
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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शके? तुं तो तारा उपयोगस्वरूपमांज सदाय रहेलो छे, पुद्गल ते जड छे, तेमां तुं रहेलो नथी. माटे एकला
चैतन्यमय स्वद्रव्यने ज तुं तारापणे अनुभव, तेमां ज ‘हुं’ पणानी प्रतीति कर, अने एनाथी भिन्न अन्य समस्त
पदार्थोमांथी हुं–पणुं छोडी दे.
*
[९]
अहो! हुं तो एक चैतन्यमय जीवतत्त्व, ते अजीवमां कई रीते व्यापुं? हुं तो मारा उपयोगस्वरूपमां ज छुं ने
पर तो परमां ज छे, हुं कदी मारा उपयोगस्वरूपने छोडीने पररूपे थयो ज नथी,’–आम श्री गुरुए तने समजाव्युं,
माटे हे भव्य! ‘हुं पोते मारा उपयोगस्वभावमां ज छुं’–एम जाणी, प्रसन्न थई, सावधान था, अने अंतर्मुख
थईने आवा तारा चैतन्यस्वरूपनो अनुभव कर, तेना अतीन्द्रिय आनंदने भोगव. अमे तने तारुं चैतन्यस्वरूप
देहादि बधाथी जुदुं अने तारा पोताथी ज परिपूर्ण, सदा उपयोगमय बताव्युं, ते जाणीने तुं प्रसन्न था, सावधान था
अने तेनो अनुभव कर, तेमां तने आत्माना अपूर्व आनंदनुं स्वसंवेदन थशे.
*
ए प्रमाणे आचार्यदेवे चैतन्यस्वरूपमां प्रसन्नता, सावधानी अने अनुभव करवानुं कह्युं.
श्री गुरुना आवा कल्याणकारी उपदेशने झीलनार शिष्य विनय अने बहुमानपूर्वक कहे छे केः हे प्रभो!
अनादिथी मारा भिन्न चैतन्यतत्त्वने भूलीने, विकारमां ने परमां ज मारापणुं मानीने हुं आकुळ–व्याकुळ थई रह्यो
हतो, आपश्रीए परम करुणा करीने वारंवार मने प्रतिबोध्यो अने परथी अत्यंत भिन्न, चैतन्यस्वरूपथी परिपूर्ण
मारुं स्वद्रव्य समजावीने आपे मने न्याल कर्यो. अहो, आवुं परम महिमावंत मारुं स्वद्रव्य समजतां मने प्रसन्नता
थाय छे, परमां घूंटायेली एकत्वबुद्धि टळीने हवे चैतन्यस्वरूपमां सावधानी थाय छे, मारो उत्साह निजस्वरूप तरफ
वळे छे अने हुं मने नित्य उपयोगस्वरूपे ज अनुभवुं छुं. हवे रागादि भावो के परद्रव्य मारा स्वरूपमां एकमेकपणे
जरापण भासता नथी. अहो नाथ! आपे दिव्यमंत्रो वडे अमारी मोहमूर्छा दूर करीने अमने सजीवन कर्यां....
–आम, समजनार शिष्य अत्यंत विनय अने बहुमानपूर्वक श्री गुरुना उपकारनी जाहेरात करे छे.
*
आचार्यदेवे घणा घणा प्रकारथी जीव–अजीवनुं जुदापणुं बताव्युं, अने अजीवथी भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूप
आत्मानी समजण आपीने, प्रसन्नतापूर्वक सावधानीथी तेनो अनुभव करवानुं कह्युं; कोई जीव एटलाथी पण न जागे
तो तेने अति उग्र प्रेरणा करीने आचार्यदेव २३ मा कलशमां कहे छे के अरे भाई! तुं मरीने पण चैतन्यमूर्ति आत्मानो
अनुभव कर. आचार्यदेव कोमळ संबोधनथी कहे छे के हे भाई! शरीरादिक मूर्तद्रव्योथी भिन्न एवा तारा
चैतन्यस्वरूप आत्माने तुं कोई पण प्रकारे–महा प्रयत्न करीने अनुभव,–जेथी पर साथे एकपणानो तारो मोह छूटे.
(–आत्मानो अनुभव करवानी प्रेरणावाळुं आ २३ मा कलश उपरनुं प्रवचन आवता अंकमां वांचो. ए
लेखनुं मथाळुं हशे–‘आत्मकल्याणनी अद्भुत प्रेरणा.’ आत्मकल्याणने माटे झंखता जिज्ञासुओने ए लेख वांचतां
एम थशे केः अहो! महा उपकारी संतो सिवाय आत्मकल्याणनी आवी वात्सल्यभरी अद्भुत प्रेरणा कोण आपे?)
*
ः १२ः आत्मधर्मः १२१ः