सिद्ध भगवानना आठ गुणो
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१. परम क्षायिक सम्यक्त्व
केवळज्ञानादि गुणोना स्थानरूप जे निज शुद्ध आत्मा छे ते ज उपादेय छे–आवा प्रकारनी रुचिरूप
निश्चयसम्यक्त्व पहेलां तपश्चरण करवानी अवस्थामां * उत्पन्न कर्युं हतुं; तेना फळभूत, समस्त जीवादि तत्त्वोना
विषयमां विपरीत अभिनिवेशरहित परिणामरूप परम क्षायिक सम्यक्त्व नामनो प्रथम गुण सिद्ध भगवंतोमां
कहेवामां आवे छे. (* अहीं, तपश्चरण करवानी अवस्थामां निश्चय–सम्यक्त्व थवानुं कह्युं छे ते निश्चयरत्नत्रयनी
एकता अपेक्षाए समजवुं; एकलुं निश्चयसम्यक्त्व चोथा गुणस्थाने पण होय छे.)
२. केवळज्ञान
पूर्व काळे छद्मस्थ अवस्थामां भावेला निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञानना फळभूत, एक ज समयमां लोक–
अलोकना समस्त पदार्थोना विशेषोने जाणनार केवळज्ञान नामनो बीजो गुण छे.
३. केवळदर्शन
संपूर्ण विकल्पोथी शून्य निज शुद्धात्मानी सत्ताना अवलोकनरूप जे दर्शन पहेलां भावित कर्युं हतुं, ते दर्शनना
फळभूत. एक साथे लोक–अलोकना समस्त पदार्थोना सामान्यने ग्रहण करनार केवळदर्शन नामनो त्रीजो गुण छे.
४. अनंतवीर्य
चैतन्यस्वरूपथी चलित थवाना कारणरूप कोई घोर परीषह अने उपसर्ग वगेरे थवाना काळे पहेलां पोताना
निरंजन परमात्मानुं ध्यानमां धैर्यपूर्वक अवलंबन कर्युं हतुं, तेना फळभूत, अनंत पदार्थोना ज्ञानमां खेदना
अभावरूप लक्षणनो धारक अनंतवीर्य नामनो चोथो गुण छे.
प. सूक्ष्मत्व
सूक्ष्म अतीन्द्रिय केवळज्ञाननो विषय होवाथी सिद्धोना स्वरूपनुं सूक्ष्मत्व कहेवामां आवे छे; आ सूक्ष्मत्व
पांचमो गुण छे.
६. अवगाहन
जेम एक दीपकना प्रकाशमां अनेक दीपकोना प्रकाशनो समावेश थई जाय छे तेम एक सिद्धना क्षेत्रमां
संकरव्यतिकर दोषना परिहारपूर्वक अनंत सिद्धोने अवकाश देवानुं जे सामर्थ्य छे ते छठ्ठो अवगाहन गुण छे.
७. अगुरुलघुत्व
जो सिद्धस्वरूप सर्वथा गुरु (भारे) होय तो लोढाना गोळानी माफक तेनुं अधःपतन ज थया करे, अने जो
सर्वथा लघु (हळवुं) होय तो पवनथी ऊडता आकोलियाना रू नी माफक तेनुं निरंतर भ्रमण ज थया करे, –परंतु
सिद्धनुं स्वरूप एवुं नथी तेथी अगुरुलघुत्व नामनो सातमो गुण कहेवामां आवे छे.
८. अव्याबाध अनंत सुख
सहज शुद्ध स्वरूपना अनुभवथी उत्पन्न तथा रागादि विभावोथी रहित एवा सुखरूपी अमृतनो जे एकदेशअनुभव
पूर्वे कर्यो हतो, तेना फळभूत अव्याबाध अनंत सुख नामनो आठमो गुण सिद्धोमां कहेवामां आवे छे.
–आवा अष्ट महागुणोना धारक श्री सिद्धभगवंतोने नमस्कार हो!
(जुओ, बृहत्द्रव्यसंग्रह गा. १४ टीका)
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ः १४ः आत्मधर्मः १२१ः