Atmadharma magazine - Ank 121
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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–द्रव्य–गुण ने पर्यायथी परिपूर्ण मारुं स्वरूप छे, राग–द्वेष मारुं खरुं स्वरूप नथी एम
नक्की करीने, पछी पर्यायनुं लक्ष छोडीने अने गुणभेदनुं लक्ष पण छोडीने चिन्मात्र
आत्माने लक्षमां ल्ये छे.
–आ रीते एकला चिन्मात्र आत्मानो अनुभव करतां ज सम्यग्दर्शन थाय छे ने मोह टळी
जाय छे.
*
*भगवानना दर्शन अने भगवाननो साक्षात्कार केम थाय तेनी आ वात छे. भगवान केवा
छे ते ओळखे अने हुं पण एवो ज भगवान छुं–
‘जिन सो ही आतमा’एम
ओळखीने तेमां ज लक्षने एकाग्र करतां निर्विकल्प आनंदनो अनुभव थाय छे, ते ज
भगवाननां दर्शन छे, ते ज आत्मसाक्षात्कार अथवा भगवाननो साक्षात्कार छे.
‘अप्पा
सो परमप्पा’ तेथी आत्मानुं दर्शन ते ज परमात्मानुं दर्शन छे, ते ज स्वानुभव छे, ते ज
बोधिसमाधि छे, ते ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे. आ सिवाय भगवानमां अने
पोताना आत्मामां जे किंचित् पण फेर परमार्थे माने तेने भगवाननो भेटो–भगवाननो
साक्षात्कार के भगवानना दर्शन थाय नहीं.
*
*आत्माने ओळखीने तेनुं सम्यग्दर्शन करवुं ते आ मनुष्य जीवननी सफळता छे. आत्मानी
ओळखाणना संस्कार सहित ज्यां जशे त्यां आत्मानी साधना चालु राखीने अल्पकाळमां
मुक्ति पामशे. पण जो जीवनमां आत्मानी ओळखाणना संस्कार न नांख्या तो दोरा
वगरनी सोयनी माफक आत्मा भवभ्रमणमां क्यांय खोवाई जशे. जेम दोरे परोवेली
सोय खोवाती नथी तेम आत्मामां जो सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानरूपी दोरो परोवी ल्ये
तो आत्मा चोरासीना अवतारमां रखडे नहि.
*
*सम्यग्दर्शन माटेनी आ अपूर्व वात छे. जेम वेपार–धंधामां के रसोई वगेरेमां ध्यान राखे
छे तेम अहीं आत्मानी रुचि करीने बराबर ध्यान राखवुं जोईए. अंतरमां मेळवणी
करीने समजवुं जोइए. मांगळिक तरीके आ अपूर्व वात छे. ‘आ कांईक अपूर्व छे,
समजवा जेवुं छे’–एम उत्साह लावीने ६० मिनिट बराबर ध्यान राखीने सांभळे तो य
बीजा करतां जुदी जातना पुण्य थई जाय, अने आत्माना लक्षे अंतरमां समजीने आ
भावरूपे परिणमी जाय तेने तो अनंतकाळमां अप्राप्त एवो सम्यग्दर्शननो अपूर्व लाभ
थाय. आ वात सांभळवी पण मोंघी छे अने समजवी ते तो अभूतपूर्व छे.
*
*सम्यग्दर्शननी अंर्तक्रिया ते ज धर्मनी पहेली क्रिया छे. सम्यग्दर्शन पोते श्रद्धागुणनी
पवित्र क्रिया छे ने तेमां मिथ्यात्वादिक अधर्मनी क्रियानो अभाव छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रना निर्मळ भावरूप जे पर्याय परिणमे छे ते ज धर्म क्रिया छे, ते क्रिया रागरहित
छे, राग होय ते धर्मनी क्रिया नथी. धर्मी जाणे छे के मारा स्वभावना अनुभवमां ज्ञान–
दर्शन–आनंदनी निर्मळ क्रिया थाय छे तेमां हुं छुं, पण रागनी क्रियामां हुं नथी.
*
*द्रव्य–गुण–पर्यायने जाण्या पछी अंतरना अभेद चैतन्यमात्र स्वभावनो अनुभव करवो
ः १८ः आत्मधर्मः १२१ः