थाय” तेनो उपाय बतावीने, जिज्ञासुओने तेमना परम कर्तव्यनी वारंवार
जागृति....प्रेरणा अने उत्साह आप्या करवो ते आ ‘आत्मधर्म’ नुं ध्येय छे.
थाय?....एवुं शुं कर्तव्य करुं के जेथीं मारो आत्मा आ भवदुःखमांथी छूटे? ए प्रमाणे अंतरमां आत्महितनी विचारणा
करीने ते माटेनी साची जिज्ञासा प्रगट करवी जोईए. जो आत्महितनी साची जिज्ञासा जागे तो ते आत्महितनो मार्ग
लीधा विना रहे नहि. जेने आत्महित माटे जिज्ञासा जागी होय एवा जिज्ञासुओनुं शुं कर्तव्य छे ते अहीं रजू करवामां
आव्युं छे.
आवती क्रियाओने तेओ धर्म माने छे अने तेवी बाह्य क्रियाओ वडे तेओ पोताने धर्मी मानी ले छे. वास्तविक धर्मनुं
स्वरूप तेओ समजता नथी अने समजवा माटेनी दरकार पण करता नथी;–एवा जीवोने धर्मना जिज्ञासु कही शकाय
नहि.
पामीने हुं एवो उपाय करुं के जेथी मारा आत्मानुं हित थाय.–आवी जिज्ञासापूर्वक जे जीव पोताना हितने माटे धर्मनुं
स्वरूप समजवा मागे छे अने ते समजीने तेनी प्राप्तिनो अंर्तप्रयत्न करवा मांगे छे–ते जीव धर्मनो जिज्ञासु छे.
आत्मानुं वास्तविक स्वरूप शुं छे, आत्मानो धर्म शुं छे, अधर्म शुं छे, अने ते धर्म–अधर्म शेनाथी थाय छे, तथा देव–
गुरु–शास्त्रनुं वास्तविक स्वरूप शुं छे–तेनो यथार्थ निर्णय जिज्ञासुओए सत्समागमे जरूर करवो जोईए; तत्त्वनो
यथार्थ निर्णय कर्या वगर धर्मनी शरूआत थई शकती नथी.
आवे छे तेमां मुख्यपणे ‘जीवने अपूर्व सम्यग्दर्शननी प्राप्ति केम थाय’–तेनो उपाय बताववामां आवे छे. पू.
गुरुदेवश्रीना सर्वे प्रवचनोनुं मध्यबिंदु......एटले के आखा जैनशासननुं मूळभूत बीज....... ‘सम्यग्दर्शन’ ज छे. माटे
जिज्ञासुओए तेनुं स्वरूप बराबर स्पष्टपणे ओळखीने, तद्रूप परिणमवानो अहर्निश उद्यम करवो ते कर्तव्य छे. अने
जिज्ञासुओने तेमना आ परम कर्तव्यनी वारंवार जागृति....प्रेरणा अने उत्साह आप्या करवो ते ‘आत्मधर्म’ नुं ध्येय
छे. सम्यग्दर्शन कहो के शाश्वत सुखनो उपाय कहो–तेने आ मासिक बतावतुं होवाथी,
कारतकः २४८०