Atmadharma magazine - Ank 121
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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आ ‘आत्मधर्म’ ने ‘शाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक’ कहेवामां आवे छे.
*
‘धर्म’ ए सामान्य लौकिक वस्तु नथी परंतु ते तो अलौकिक अपूर्व भाव छे. लोकव्यवहारमां तो दया–दान–
सेवा वगेरे साधारण भावोने धर्म कही देवामां आवे छे, परंतु ते लोकोत्तर धर्म नथी एटले के वास्तविक धर्मनुं
स्वरूप तेवुं नथी. आर्यभूमिमां अने सुकुळमां जन्मेला जीवोने–दया, कोमळता, बीजाने दुःख न देवुं, चोरी न करवी,
स्वस्त्रीमां ज संतोष राखवो, सत्य बोलवुं, तीव्र हिंसा के क्रूरता न करवी,–इत्यादि लौकिक सज्जनताना भावो तो
सामान्यपणे होय ज,–हवे जो एवा लौकिक भावोने (शुभभावोने) ज धर्मनुं स्वरूप मानी लेवामां आवे तो बधा
लौकिक सज्जन माणसो पण धर्मात्मा ठरे, अने धर्मनुं लोकोत्तरपणुं के अपूर्वपणुं रहे नहि. परंतु धर्म तो सर्वे लौकिक
भावोथी तद्न जुदो ज अपूर्व भाव छे. लौकिक आचरण सुधारीने पुण्यभावथी स्वर्गमां तो जीव पूर्वे अनंतवार
गयो छे परंतु धर्मनो अपूर्व लोकोत्तर भाव तेणे पूर्वे कदी प्रगट कर्यो नथी.
धर्मनी अपूर्वता बाबतमां भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के–
‘मिथ्यात्व–आदिक भावने चिरकाळ भाव्या छे जीवे;
सम्यक्त्व–आदिक भाव रे! भाव्या नथी पूर्वे जीवे.’
(–नियमसार गा. ९०)
मिथ्यात्वादि भावो जीवे पूर्वे बहु दीर्घ काळ भाव्या छे; परंतु सम्यक्त्वादि भावो जीवे पूर्वे कदी भाव्या नथी.
माटे हवे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रयनी भावना कर्तव्य छे.
वळी आचार्यदेव कहे छे के हे आत्मन्! तुं आ दीर्घ संसारमां सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयनी प्राप्ति विना भम्यो
माटे हवे तुं रत्नत्रयने अंगीकार कर–
‘रयणत्तये अलद्धे भमिओसि दीहसंसारे।
इव जिणवरेहिं भणियं तं रयणत्तं समायरह।।
(–भावप्राभृत गा. ३०)
हे जीव! सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रयने नहि पामवाथी आ दीर्घ संसारने विषे तुं भम्यो, आ
जाणीने हवे तुं ते रत्नत्रयनुं आचरण कर,–एम श्री जिनेश्वरदेवे कह्युं छे.
सर्वगुणोमां सारभूत एवा सम्यग्दर्शनने धारण करवानो उपदेश आपतां आचार्यदेव कहे छे के–
एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण ।
सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स ।।
(दर्शनप्राभृत गा. २)
पूर्वोक्त प्रकारे जिनेश्वरदेवे कहेलुं जे सम्यक् दर्शन छे ते सर्व गुणोने विषे अने दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप
रत्नत्रयने विषे सार छे, उत्तम छे, अने मोक्षरूपी महेलमां चढवानुं ते प्रथम पगथियुं छे. माटे हे भव्य जीवो! तमे ते
सम्यग्दर्शनने अंतरंग भावथी धारण करो.
आचार्यदेव कहे छे के अहो! जो तारामां सामर्थ्य होय तो तुं सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणेय करजे, अने जो
तारामां तेटलुं सामर्थ्य न होय तो साची श्रद्धारूप सम्यक्त्व तो जरूर करजे. सम्यक्त्वथी पण तारुं आराधकपणुं टकी
रहेशे. माटे श्रद्धा जरूर कर्तव्य छे.
आत्मामां आवुं सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ते दरेक जिज्ञासुओनुं कर्तव्य छे; अने ज्यांसुधी आत्मामां एवा शुद्ध
सम्यक्त्वनुं परिणमन न थाय त्यां सुधी जंप्या विना दिन–रात तेने माटे अंतर्विचार–मंथन–अभ्यासनो प्रयत्न
करवो ते कर्तव्य छे. *
‘सद्गुरु प्रवचन प्रसाद’ ना ग्राहकोने–
‘सद्गुरु प्रवचन प्रसाद’ ना लवाजमना रूपिया घणा भाईओ जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट’ ना सरनामे मोकले
छे जेथी व्यवस्था अने हिसाबमां मुश्केली पडे छे. तो हवेथी नीचेना सरनामे मोकलवा विनंती छे.
‘श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद’ कार्यालय
सोनगढ (सौराष्ट्र)
ः ४ःआत्मधर्मः १२१ः