मुमुक्षुने शुद्धचैतन्यस्वरूपना ज ग्रहणथी परभावोनुं प्रत्याख्यान थई जाय छे तेथी श्री प्रद्मप्रभमुनिराज कहे छे के हे
मित्र! मारो आवो उपदेश सांभळीने तुरत ज उग्र प्रयत्नपूर्वक तुं आ चैतन्यचमत्कार स्वभावमां तारुं वलण कर.
तने पण मारा जेवुं प्रत्याख्यान थशे अने आपणे बंने सरखा थईशुं. आ प्रमाणे, ‘हे सखा! हे मित्र!’ –एम
संबोधन करीने श्रोताने पण पोताना जेवो बनाववा मांगे छे.
जेटला ज्ञानीओ छे ते बधाय ज्ञानीओना उपदेशनो सार ए छे के पोताना सहज ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने जाणीने
तेमां ज वलण करवुं. आ ज मोक्षनुं कारण छे. हे भव्य! जो तने आत्मानो रंग लाग्यो होय तो हवे अमारो उपदेश
सांभळीने तारी बुद्धिने चैतन्यस्वरूपमां वाळ, तारी बुद्धिने अंतरमां वाळीने चैतन्यनुं ज ग्रहण कर, अने ए
सिवाय परभावना ग्रहणनी बुद्धि छोड. उग्रपणे एटले के अप्रमादभावे चैतन्यस्वरूपमां वलण करीने तेनी श्रद्धा,
तेनुं ज्ञान अने तेमां लीनता करवी ते मोक्षनी प्राप्तिनो उपाय छे.
पण कहे छे के हे सखा! तुं पण चालने मारी साथे!! अमारो श्रोता अमाराथी जुदो रही जाय–ए केम बने? हे मित्र!
अमारो उपदेश सांभळीने, अमारी जेम तुं पण तरत ज चैतन्यस्वरूपमां उग्रपणे तारुं वलण कर. चैतन्यनुं उग्र
अवलंबन करतां तने पण अमारा जेवी दशा प्रगटी जशे, ने अल्पकाळमां मोक्ष थई जशे.
माटे मारे तत्त्वनिर्णय करीने मारुं आत्महितनुं प्रयोजन साधी लेवुं–आम विचारी
संसारना काममांथी रस घटाडीने चैतन्यनो निर्णय करवानो उद्यम करे छे. तेमां ज
पोतानुं हित भास्युं छे तेथी ते कार्य करवामां प्रीति अने हर्षपूर्वक उद्यम करे छे. आ
रीते पोतानुं आत्मकार्य करवानो घणो उल्लास होवाथी निरंतर तेनो उद्यम कर्या ज
करे छे. हुं बीजाने सुधारी दउं–एवा विचारमां रोकातो नथी पण हुं तत्त्व समजीने
मारा आत्मानो आ भवभ्रमणमांथी उद्धार करुं–एम विचारी तेनो ज उद्यम करे छे.
– ‘काम एक आत्मार्थनुं, बीजो नहि मन रोग.’