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निजमहिमानं जानन् गुरुचरणसमर्च्चना समुद्भूतम् ।। १३२।।
छे. जेने परथी भिन्न पोताना चैतन्य स्वरूपनुं भान नथी अने पर द्रव्यने पोतानुं माने छे–
परनी क्रिया हुं करुं छुं एम माने छे तेणे खरेखर गुरुना चरणनी साची उपासना करी नथी, अने
तेने प्रत्याख्यान होतुं नथी.
तेम ज उपदेशमां पण तेम न कहेता होय ते साचा गुरु छे; अने एवा गुरुनी भक्तिपूर्वक जेणे
पोताना निज महिमाने जाण्यो छे–स्वपरनुं यथार्थ भेदज्ञान कर्युं छे ते ज गुरुना चरणनो साचो
उपासक छे. आ सिवाय जेमणे पोते आत्म स्वरूपना महिमाने जाण्यो न होय, ने पर द्रव्यने
पोतानुं मानता होय, शरीरादिनी क्रिया आत्मा करे छे एम उपदेशता होय ते साचा गुरु नथी
पण कुगुरु छे. अने ‘कोई पण द्रव्य मारुं छे, तेनी क्रिया हुं करुं छुं अथवा ते मने कांई लाभ करे
छे’–एम जे जीव माने छे ते जीव गुरुना चरणनो साचो उपासक नथी, ते गमे तेटलां शास्त्रो
जाणतो होय तोपण ज्ञानीओ तेने विद्वान कहेता नथी अने तेने साचुं प्रत्याख्यान होतुं नथी.