Atmadharma magazine - Ank 122
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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ते ज सम्यग्दर्शननो अने अरिहंतपदनो उपाय छे.
* * *
*आ आत्मानो स्वभाव अरिहंत भगवान जेवो कई रीते छे ते जाण्या विना, दया–भक्ति–व्रत पूजा के
शास्त्र–अभ्यास वगेरे गमे तेटलुं करे तोपण, कोई रीते धर्म थतो नथी. धर्म करवा माटे शरूआतनुं कर्तव्य
ए छे के अरिहंत भगवाननो अने तेमना जेवा पोताना आत्मानो निर्णय करवो.
* * *
*अरिहंत भगवानना स्वभावमां अने आ आत्माना स्वभावमां निश्चयथी कांईपण तफावत माने तो ते
जीव पामर छे–मिथ्याद्रष्टि छे, तेने धर्म थतो नथी.
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*अरिहंत भगवानना द्रव्य–गुण–पर्यायने लक्षमां लेतां पोताना परमार्थ स्वरूपनो ख्याल आवे छे;
भगवानना द्रव्य–गुण पूरा छे ने तेमनी पर्याय संपूर्ण ज्ञानमय छे एम निर्णय करतां, मारा द्रव्य–गुण तो
पूरा छे ने पर्याय संपूर्ण ज्ञानरूप विकाररहित होवी जोईए–एम प्रतीत थाय छे; अने ए प्रतीतना जोरे
पूर्णता तरफनो पुरुषार्थ उपडे छे.
* * *
*‘पूर्णताना लक्षे शरूआत’ एटले जेवा अरिहंत तेवो हुं–एवा लक्षे धर्मनी शरूआत थाय छे.
स्वभावसामर्थ्यनी पूर्णता भास्या वगर कोनी ओथे धर्म करशे? पामरतानी ओथे धर्मनी शरूआत थती
नथी, पण प्रभुताने ओळखीने तेना जोरे प्रभुतानो पुरुषार्थ उपडे छे. पोतानी प्रभुताने जाण्या वगर
धर्मना अपूर्व पुरुषार्थनो साचो उल्लास उपडे ज नहि.
* * *
*अरिहंत भगवाननी साथे सरखामणी करीने जीव पोताना आत्मस्वरूपने नक्की करे छे के जेवा अरिहंत
भगवान छे तेवो ज हुं छुं; आ प्रमाणे अरिहंतना स्वरूपने जाणतां जीव स्व–समयने जाणी ले छे, अने
स्व–समयने जाणतां तेनो मोह टळी जाय छे.–आ अपूर्व धर्मनी शरूआत छे.
* * *
*अरिहंत भगवाननी पर्यायमां रागनो अभाव छे, माटे राग ते आत्मानुं असली स्वरूप नथी;–आ रीते
अरिहंत भगवानने ओळखतां आत्मा अने रागनुं भेदज्ञान थाय छे.
* * *
*ज्ञानपर्याय एक समय पुरती ज होवा छतां तेनामां त्रिकाळी द्रव्यनो निर्णय करवानुं सामर्थ्य छे. सर्वज्ञ
भगवानना परिपूर्ण द्रव्य–गुण–पर्यायने तेम ज तेवा पोताना आत्माने निर्णयमां लई ल्ये एवुं सामर्थ्य
ज्ञाननुं ज छे, रागमां एवुं सामर्थ्य नथी. अंतर्मुख थईने त्रिकाळी स्वभाव साथे तन्मय थई जाय–एवी
एक समयनी ज्ञानपर्यायनी ताकात छे, परंतु कोईपण रागमां एवी ताकात नथी के अंतर्मुख थईने
ज्ञानस्वभाव साथे तन्मय थई शके!
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*अरिहंत भगवाननो आत्मा सर्वतः विशुद्ध छे, तेमनी पर्याय पण अनंत चैतन्यशक्तिसंपन्न छे; आम
लक्षमां लीधुं ते वखते पोताने तेवी शुद्ध पर्याय वर्तती नथी पण राग वर्ते छे, छतां ‘राग ते मारी
अवस्थानुं मूळ स्वरूप नथी, मारी अवस्था अरिहंत
मागशरः २४८० ः ३९ः