Atmadharma magazine - Ank 122
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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–एवी मान्यता छोडी दे.
[६]
चैतन्यतत्त्वने जोवा माटे कुतूहल करवानुं कह्युं ते शिष्यनी चैतन्यने जोवा माटेनी तालावेली अने उग्रता
बतावे छे. तुं प्रमाद छोडीने उग्र प्रयत्न वडे चैतन्यतत्त्वने देख. जेम सरकस वगेरेना नवा नवा प्रसंग जोवामां
कुतूहल छे एटले त्यां एक नजरे जोई रहे छे, त्यां झोकां आवता नथी, प्रमाद करतो नथी, तेम हे भाई!
शरीरादिकथी भिन्न एवा तारा चैतन्यतत्त्वने जोवा माटे जगतनी प्रतिकूळतानुं लक्ष छोडीने अंतरमां कुतूहल कर,
पूर्वे कदी नहि जोयेल एवा परम चैतन्य भगवानने जोवा माटे तालावेली कर....प्रमाद छोडीने तेमां उत्साह कर.
[७]
जेने चैतन्यतत्त्वना अनुभवनी तालावेली लागी होय ते जीव जगतनी मृत्यु सुधीनी प्रतिकूळताने पण
गणकारतो नथी. सामे प्रतिकूळता तरीके मरण सुधीनी वात लीधी अने अहीं चैतन्यने जोवा माटे तालावेली–
कुतूहलनी वात लीधी,–ए रीते सामसामी उत्कृष्ट वात लीधी छे. चैतन्यतत्त्वने जोवा माटे, सामे शरीर जतां सुधीनी
प्रतिकूळता लक्षमां लईने तेनी दरकार जेणे छोडी, ते जीव संयोगनी द्रष्टि छोडीने अंतरना चैतन्यस्वभावमां वळ्‌या
वगर रहेशे नहि. असंयोगी चैतन्य तत्त्वनो अनुभव करवानी जेने कामना छे ते जीव, बहारमां शरीरना वियोग
सुधीनी प्रतिकूळता आवे तोपण मुंझातो नथी...डरतो नथी. अहीं ए वात पण समजी लेवी के चैतन्यना अनुभवनो
कामी जीव जेम जगतनी प्रतिकूळताने गणकारतो नथी तेम जगतनी अनुकूळतामां ते होंश पण नथी करतो, तेम ज
बहारना जाणपणामां संतोष मानीने ते अटकी जतो नथी. अंतरमां एक चैतन्यतत्त्वनो ज महिमा तेना हृदयमां वसे
छे, ए सिवाय बीजा बधायनो महिमा तेना हृदयमांथी छूटी गयो छे. एटले चैतन्यना महिमाना जोरे ते जीव
संयोगनुं अने विकारनुं लक्ष छोडीने, तेमनाथी भिन्न चैतन्यतत्त्वनो अनुभव कर्या वगर रहेशे नहि.
[८]
अखंड चैतन्य सामर्थ्यने चूकीने जेने अल्पतामां ने विकारमां एकपणानी बुद्धि छे तेने संयोगमां पण
एकपणानी बुद्धि पडी ज छे; संयोगमां एकपणानी बुद्धि वगर अल्पतामां के विकारमां एकपणानी बुद्धि थाय नहि.
जो संयोगमांथी एकत्वबुद्धि खरेखर छूटी होय तो संयोग–रहित स्वभावमां एकत्वबुद्धि थई होवी जोईए.
अहीं आचार्यदेव अप्रतिबुद्ध शिष्यने समजावे छे. हे जीव! अनादिथी तारा भिन्न चैतन्यतत्त्वने चूकीने,
बाह्यमां शरीरादि पर पदार्थो साथे एकपणानी मान्यताथी तें ज मोह ऊभो कर्यो हतो, हवे देहादिकथी भिन्न चैतन्य
तत्त्वनी ओळखाण करतां ज तारो ते मोह टळी जशे. माटे सर्व प्रकारे तुं तेनो उद्यम कर.
[९]
आचार्यदेव कहे छे के हे शिष्य! मरीने पण तुं तत्त्वनो कौतूहली था. जुओ, शिष्यमां घणी पात्रता अने
तैयारी छे तेथी, मरीने पण तत्त्वनो कौतूहली थवानी आ वात सांभळवा ते ऊभो छे, अंतरमां समजीने आत्मानो
अनुभव करवानी तेने भावना छे, धगश छे, एटले जिज्ञासाथी सांभळे छे. तेने पोताने पण अंतरमां एटलुं तो
भासी गयुं छे के आचार्यभगवान
मागशरः २४८० ः ३१ः