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कुतूहल छे एटले त्यां एक नजरे जोई रहे छे, त्यां झोकां आवता नथी, प्रमाद करतो नथी, तेम हे भाई!
शरीरादिकथी भिन्न एवा तारा चैतन्यतत्त्वने जोवा माटे जगतनी प्रतिकूळतानुं लक्ष छोडीने अंतरमां कुतूहल कर,
पूर्वे कदी नहि जोयेल एवा परम चैतन्य भगवानने जोवा माटे तालावेली कर....प्रमाद छोडीने तेमां उत्साह कर.
कुतूहलनी वात लीधी,–ए रीते सामसामी उत्कृष्ट वात लीधी छे. चैतन्यतत्त्वने जोवा माटे, सामे शरीर जतां सुधीनी
प्रतिकूळता लक्षमां लईने तेनी दरकार जेणे छोडी, ते जीव संयोगनी द्रष्टि छोडीने अंतरना चैतन्यस्वभावमां वळ्या
वगर रहेशे नहि. असंयोगी चैतन्य तत्त्वनो अनुभव करवानी जेने कामना छे ते जीव, बहारमां शरीरना वियोग
सुधीनी प्रतिकूळता आवे तोपण मुंझातो नथी...डरतो नथी. अहीं ए वात पण समजी लेवी के चैतन्यना अनुभवनो
कामी जीव जेम जगतनी प्रतिकूळताने गणकारतो नथी तेम जगतनी अनुकूळतामां ते होंश पण नथी करतो, तेम ज
बहारना जाणपणामां संतोष मानीने ते अटकी जतो नथी. अंतरमां एक चैतन्यतत्त्वनो ज महिमा तेना हृदयमां वसे
छे, ए सिवाय बीजा बधायनो महिमा तेना हृदयमांथी छूटी गयो छे. एटले चैतन्यना महिमाना जोरे ते जीव
संयोगनुं अने विकारनुं लक्ष छोडीने, तेमनाथी भिन्न चैतन्यतत्त्वनो अनुभव कर्या वगर रहेशे नहि.
जो संयोगमांथी एकत्वबुद्धि खरेखर छूटी होय तो संयोग–रहित स्वभावमां एकत्वबुद्धि थई होवी जोईए.
तत्त्वनी ओळखाण करतां ज तारो ते मोह टळी जशे. माटे सर्व प्रकारे तुं तेनो उद्यम कर.
अनुभव करवानी तेने भावना छे, धगश छे, एटले जिज्ञासाथी सांभळे छे. तेने पोताने पण अंतरमां एटलुं तो
भासी गयुं छे के आचार्यभगवान