Atmadharma magazine - Ank 123
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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मनष्यन फरज?
*
घणा लोको पूछे छे के मनुष्यनी फरज शुं?–मानवधर्म शुं? तेना उत्तरमां गुरुदेव कहे छे के अरे भाई! सौथी
पहेलां तो ‘हुं मनुष्य छुं’ एवी मान्यता ते ज मोटो भ्रम छे. मनुष्यपणुं ते तो संयोगी पर्याय छे, जीव–पुद्गलना
संयोगरूप असमानजातीय पर्याय छे, ते आत्मानुं स्वरूप नथी. मनुष्यपर्याय ते हुं नथी, हुं तो ज्ञानस्वरूप आत्मा
छुं–एम समजवुं ते आत्मानी पहेली फरज छे, ने ते पहेलो धर्म छे. मनुष्यभव पामीने करवा जेवुं होय तो ए ज छे.
आ सिवाय ‘हुं मनुष्य ज छुं’ एम मानीने जे कांई क्रियाकलाप करवामां आवे ते बधोय व्यवहार मूढ अज्ञानी
जीवोनो व्यवहार छे.
हुं तो देहथी भिन्न केवळ चैतन्यमूर्ति छुं–एम ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानुं भान करीने सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–
एकाग्रतारूप जे वीतरागी पर्याय प्रगटे ते ‘आत्मव्यवहार’ छे,–ए ज धर्मी जीवोनो व्यवहार छे. ‘ज्ञानस्वरूप
आत्मा ते हुं छुं’ –एम न मानतां, ‘मनुष्य पर्याय ते ज हुं छुं’ मनुष्यदेह ते हुं छुं’ शरीरनी क्रियाओ मारी छे’–
एम मानीने पर्यायबुद्धिमां लीन थयेला मूढ जीवो परसमय छे, तेओ जैन नथी. ‘मानवधर्म’ ना नामे अज्ञानीओ
शरीर साथेनी एकताबुद्धिरूप मिथ्यात्वनुं ज पोषण करे छे. ज्ञानीओ तो एम कहे छे के हे भाई! मनुष्यपर्यायथी
आत्मानुं भेदज्ञान करवुं–एटले के मनुष्यपर्याय ते हुं नहि पण देहथी भिन्न ज्ञानस्वरूप आत्मा ते हुं–एवुं भान
करवुं ते तारी पहेली फरज छे. अने ए ज प्रथम धर्म छे.
* * *
आ बाबतमां श्री प्रवचनसारथी ९४ मी गाथामां स्वसमय अने परसमयनुं वर्णन करतां नीचे मुजब
कह्युं छेः–
(परसमय एटले के मिथ्याद्रष्टि जीव केवो होय तेनुं वर्णन)
“जेओ जीव–पुद्गलात्मक असमानजातीय द्रव्यपर्यायनो–के जे सकळ अविद्याओनुं एक मूळ छे तेनो–
आश्रय करता थका यथोक्त आत्मस्वभावनी संभावना करवाने नपुंसक होवाथी तेमां ज बळ धारण करे छे
(–अर्थात् ते असमानजातीय द्रव्यपर्याय प्रत्ये ज जोरवाळा छे,) तेओ–जेमने निरर्गळ एकांतद्रष्टि ऊछळे छे–एवा
‘आ हुं मनुष्य ज छुं, मारुं ज आ मनुष्यशरीर छे’ एम अहंकार–ममकार वडे ठगाता थका,
अविचलितचेतनाविलासमात्र आत्मव्यवहारथी च्युत थईने, जेमां समस्त क्रियाकलापने छातीसरसो भेटवामां आवे
छे एवा मनुष्यव्यवहारनो आश्रय करीने रागी अने द्वेषी थता थका परद्रव्यरूप कर्म साथे संगतपणाने लीधे खरेखर
परसमय थाय छे.”
(टीकाः पृः १४७)
(स्वसमय जीव केवो होय छे तेनुं वर्णन)
“जेओ, असंकीर्ण (एटले के परथी भिन्न) द्रव्य–गुण–पर्यायो वडे सुस्थित एवा भगवान आत्माना
स्वभावना–के जे सकळ विद्याओनुं एक मूळ छे तेनो–आश्रय करीने यथोक्त आत्मस्वभावनी संभावनामां समर्थ
होवाने लीधे पर्यायमात्र प्रत्येनुं बळ दूर करीने आत्माना स्वभावमां ज स्थिति करे छे, तेओ–
ः प२ः
आत्मधर्मः १२३