Atmadharma magazine - Ank 123
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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–जेमणे सहज–खीलेली अनेकान्तद्रष्टि वडे समस्त एकांत द्रष्टिना परिग्रहना आग्रहो प्रक्षीण कर्या छे एवा–
मनुष्यादि गतिओमां अने ते गतिओना शरीरोमां अहंकार–ममकार नहि करतां अनेक ओरडाओमां संचारित
रत्नदीपनी माफक एकरूप ज आत्माने उपलब्ध करता थका, अविचलितचेतनाविलासमात्र आत्मव्यवहारने
अंगीकार करीने, जेमां समस्त क्रियाकलापने भेटवामां आवे छे एवा मनुष्यव्यवहारनो आश्रय नहि करता
थका रागद्वेषना उन्मेष अटकी गया होवाने लीधे परम उदासीनताने अवलंबता थका, समस्त परद्रव्यनी
संगति दूर करी होवाने लीधे केवळ स्वद्रव्य साथे संगतपणुं होवाथी खरेखर स्वसमय थाय छे.”
(टीकाः पृः १४७–८)
अहीं एम कह्युं केः ‘हुं मनुष्य छुं, शरीरादिनी समस्त क्रियाओ हुं करुं छुं, स्त्री–पुत्र–धनादिकना ग्रहण–
त्यागनो हुं स्वामी छुं’–एम मानवुं ते ‘मनुष्य–व्यवहार’ छे, अने जे जीव एवा मनुष्य–व्यवहारनो आश्रय करीने
प्रवर्ते छे ते मिथ्याद्रष्टि छे.
‘मात्र अचलितचेतना ते ज हुं छुं, देहादिक हुं नथी’ एम स्व–परनुं भेदज्ञान करीने आत्मस्वभावना
आश्रये परिणमवुं ते ‘आत्मव्यवहार’ छे; अने धर्मी जीव एवा आत्मव्यवहारने अंगीकार करीने प्रवर्ते छे.
जेओ मनुष्यादि पर्यायमां लीन छे तेओ एकांतद्रष्टिवाळा छे; ते एकांतद्रष्टिवाळा लोको भिन्न चैतन्यने
भूलीने मनुष्यव्यवहारनो आश्रय करता होवाथी रागी–द्वेषी थाय छे; अने परद्रव्य साथे संबंध करता होवाथी तेओ
परसमय छे–मिथ्याद्रष्टि छे.
जेओ देहथी भिन्न चैतन्यने जाणीने भगवान आत्मस्वभावमां ज स्थित छे तेओ अनेकांतद्रष्टि छे; तेओ
मनुष्यव्यवहारनो आश्रय न करतां आत्मस्वभावनो आश्रय करता होवाथी रागीद्वेषी थता नथी पण परम उदासीन
रहे छे; अने परद्रव्य साथे संबंध न करतां केवळ स्वद्रव्य साथे ज संबंध करता होवाथी तेओ स्वसमय छे.
स्व–परनुं भेदज्ञान करीने स्वसमयरूपे परिणमवुं ते ज दरेक जीवनी फरज–कर्तव्य छे.
(–प्रवचनमांथी)
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* मोक्षनुं कारण *
अंतर्मुख थयेलुं ज्ञान ज मोक्षनुं कारण छे, पुण्यपरिणाम ते मोक्षनुं
कारण नथी.
अंतरना ज्ञानस्वरूपनी जेने खबर नथी अने जेनुं ज्ञान परमार्थ
स्वभावनी सन्मुख थयुं नथी–एवा अज्ञानीने व्रत, नियम, शील, तप वगेरेना
शुभ परिणाम होवा छतां तेने मोक्षमार्गनो अभाव छे;–माटे पुण्य–परिणाम ते
मोक्षनुं कारण नथी.
अने जेने अंतरना ज्ञानस्वरूपनी श्रध्धा छे, जेनुं ज्ञान परमार्थस्वभावनी
सन्मुख थयुं छे एवा ज्ञानीने, ज्ञानस्वरूपनी एकाग्रतामां व्रत, नियम, शील, तप
वगेरेना शुभ परिणाम न होवा छतां मोक्षमार्गनो सद्भाव छे;–माटे
ज्ञानस्वरूपमां एकाग्रता ते ज मोक्षनुं कारण छे, पुण्यपरिणाम मोक्षनुं कारण नथी.
अज्ञानीने के ज्ञानीने कोईने पण पुण्य ते मोक्षनुं कारण नथी.
(–प्रवचनमांथी)
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पोषः २४८० ः प३ः