Atmadharma magazine - Ank 123
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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जाणपणुं भले न होय परंतु अंतरमां पोताना धु्रव चैतन्य सामर्थ्यनो महिमा आवतां तेना अवलंबने तेने पर्यायमां
आवा सम्यग्दर्शन–अने सम्यग्ज्ञाननुं अपूर्व परिणमन थई जाय छे. अने अज्ञानी जीव भले घणां शास्त्रो जाणतो
होय पण अंतरमां पोताना धु्रवचैतन्य सामर्थ्यनो महिमा भासवाने बदले क्यांक बहारमां महिमा करीने अटकी
गयो छे, एटले पोताना चैतन्य स्वभावनो आश्रय करीने ते परिणमतो नथी तेथी तेने अनादिना मिथ्यादर्शन अने
मिथ्याज्ञान टळतां नथी. अंतरमां चैतन्यवस्तु पडी छे तेनो महिमा करीने तेने श्रद्धा–ज्ञानमां पकडवी ते ज अपूर्व
कल्याणनो उपाय छे.
(–प्रवचनमांथी)
* * * * * * *
आचार्य भगवान कहे छे के.....
अरे जीव! क्षणिक रागादि
पर्याय जेटलो ज तुं नथी, तारो
भूतार्थ स्वभाव परिपूर्ण सामर्थ्यनो
पिंड छे, ते अशुद्ध थई गयो नथी;
माटे ते भूतार्थस्वभावनी सन्मुख
थईने तुं आत्माना शुद्धस्वभावनी
प्रतीत कर.
हे भाई! पर्यायमां विकार
देखीने तुं मूंझा नहि, केमके तारो
आत्मा ते विकार जेटलो नथी, तारो
आखो स्वभाव विकाररूप थई गयो
नथी, तारो द्रव्यस्वभाव तो एकरूप
शुद्ध छे, ते स्वभाव तरफ वळीने
अनुभव करतां विकाररहित शुद्ध
आत्मानो अनुभव थाय छे.
अंतरद्रष्टिथी आवो अनुभव करवो
ते एक ज कल्याणनो मार्ग छे.
* * *
.... शुद्ध आत्मानो अनुभव थई
शके छे.
चैतन्यस्वभावनी द्रष्टिथी जोतां
रागादि अशुद्ध भावो आत्मामां नथी,
तेथी ते स्वभावनी द्रष्टिथी रागादि
भावोथी रहित एवा शुद्ध आत्मानी
अनुभूति थाय छे. शुद्ध स्वभावनी
आवी द्रष्टि करे त्यारथी ज धर्मनी
शरूआत थाय छे. शुद्ध स्वभावनी
आवी अपूर्व द्रष्टि गृहस्थाश्रममां पण
थई शके छे. अरे! आठ वर्षनी नानी
बालिका हो, सिंह हो के देडकुं हो–ते
पण अंतर्मुख थईने आवी द्रष्टि
प्रगट करी शके छे. आवी द्रष्टि प्रगट
करीने शुद्ध आत्मानो अनुभव कर्या
वगर कोई जीवने धर्मनी शरूआत
थती नथी.
* * *
पोषः २४८० ः पपः