आवा सम्यग्दर्शन–अने सम्यग्ज्ञाननुं अपूर्व परिणमन थई जाय छे. अने अज्ञानी जीव भले घणां शास्त्रो जाणतो
होय पण अंतरमां पोताना धु्रवचैतन्य सामर्थ्यनो महिमा भासवाने बदले क्यांक बहारमां महिमा करीने अटकी
गयो छे, एटले पोताना चैतन्य स्वभावनो आश्रय करीने ते परिणमतो नथी तेथी तेने अनादिना मिथ्यादर्शन अने
मिथ्याज्ञान टळतां नथी. अंतरमां चैतन्यवस्तु पडी छे तेनो महिमा करीने तेने श्रद्धा–ज्ञानमां पकडवी ते ज अपूर्व
कल्याणनो उपाय छे.
भूतार्थ स्वभाव परिपूर्ण सामर्थ्यनो
पिंड छे, ते अशुद्ध थई गयो नथी;
थईने तुं आत्माना शुद्धस्वभावनी
प्रतीत कर.
आत्मा ते विकार जेटलो नथी, तारो
नथी, तारो द्रव्यस्वभाव तो एकरूप
शुद्ध छे, ते स्वभाव तरफ वळीने
आत्मानो अनुभव थाय छे.
अंतरद्रष्टिथी आवो अनुभव करवो
तेथी ते स्वभावनी द्रष्टिथी रागादि
अनुभूति थाय छे. शुद्ध स्वभावनी
आवी द्रष्टि करे त्यारथी ज धर्मनी
आवी अपूर्व द्रष्टि गृहस्थाश्रममां पण
थई शके छे. अरे! आठ वर्षनी नानी
पण अंतर्मुख थईने आवी द्रष्टि
प्रगट करी शके छे. आवी द्रष्टि प्रगट
वगर कोई जीवने धर्मनी शरूआत
थती नथी.