Atmadharma magazine - Ank 123
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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शुद्ध आत्मानो अनुभव
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शुद्धस्वभावनी द्रष्टि करे त्यारथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे. आवी
शुद्धस्वभावनी अपूर्वद्रष्टि गृहस्थाश्रममां पण थई शके छे, अरे! आठ वर्षनी
नानी बालिका हो, सिंह हो के देडकुं हो–ते पण अंतर्मुख थईने आवी द्रष्टि
प्रगट करी शके छे. आवी द्रष्टि प्रगट करीने शुद्ध आत्मानो अनुभव कर्या
वगर कोई जीवने धर्मनी शरूआत थती नथी.
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जिज्ञासु शिष्य पूछे छे के प्रभो! शुद्धआत्मानी अनुभूति केम थाय? पर्यायमां विकार होवा
छतां आत्मानो शुद्धपणे अनुभव कई रीते थाय?
आचार्यप्रभु उत्तर आपे छे के हे भाई! भूतार्थ स्वभावनी समीप जईने आत्मानो
अनुभव करतां शुद्धआत्मानी अनुभूति थाय छे; पर्यायमां विकार होवा छतां द्रव्यस्वभावमां ते
प्रवेशी गयो नथी, माटे द्रव्यस्वभावनो अनुभव करतां आत्मा शुद्धपणे अनुभवाय छे. आवो
शुद्ध–स्वभाव पर्याये–पर्याये प्रकाशमान छे, क्यारेय तेनो अभाव नथी.
पर्यायमां मतिज्ञान–श्रुतज्ञान वगेरे प्रकारो होवा छतां भूतार्थस्वभावनी सन्मुख थईने
जोतां आत्मा नित्य एकरूप व्यवस्थित छे. मतिज्ञानना नानामां नाना अंशथी मांडीने परिपूर्ण
केवळज्ञान सुधी बधी पर्यायो वखते आत्मानो स्वभाव नित्य व्यवस्थित छे, ओछुं अने वधारे
एवा भेद तेमां नथी. मतिज्ञान वखते स्वभावसामर्थ्य कांई घटी गयुं के केवळज्ञान वखते
स्वभावसामर्थ्य कांई वधी गयुं–एम नथी, स्वभाव सामर्थ्य तो सदाय एवुं ने एवुं अवस्थित
छे. आवा स्वभावसामर्थ्यने प्रतीतमां लईने तेनो आश्रय करतां पर्यायमां शुद्धतानी वृद्धि थती
जाय छे खरी. परंतु ते वखते साधकनी द्रष्टि तो एकरूप व्यवस्थित स्वभाव उपर ज पडी छे, भेद
अने अशुद्धता तेनी द्रष्टिमां अभूतार्थ छे. नित्य व्यवस्थित एवा भूतार्थस्वभावनी द्रष्टिमां
हीनाधिकताना प्रकारो देखाता नथी. आवा स्वभावनी द्रष्टिथी शुद्ध आत्मानो अनुभव थाय छे.
जेम सोनुं ते पीळाश, वजन वगेरे अनेक गुणोनो पिंड छे, तेमां ‘पीळुं ते सोनुं’ एम
पीळाशने जुदी पाडीने लक्षमां लेतां आखुं सोनुं ख्यालमां आवतुं नथी; तेम चैतन्यमूर्ति आत्मा
तो अनंत गुणनो पिंड एक समयमां परिपूर्ण वस्तु छे, तेने एक गुणथी भेद पाडीने लक्षमां लेवा
जतां आखी वस्तु ज्ञानमां आवती नथी पण विकल्पनी उत्पत्ति थाय छे. व्यवहारथी जोतां
वस्तुमां गुण–पर्यायना भेदो छे ते भूतार्थ–विद्यमान छे परंतु ते भेदनी सन्मुखताथी धर्मनी
उत्पति थती नथी–पण रागनी उत्पत्ति थाय छे; धर्मनी उत्पत्ति तो नित्य एकस्वरूपे अवस्थित
एवा अभेदआत्मस्वभावनी सन्मुखताथी ज थाय छे. ते अभेद वस्तुना अनुभवमां गुण–पर्या–
ः प६ः आत्मधर्मः १२३