शुद्धस्वभावनी अपूर्वद्रष्टि गृहस्थाश्रममां पण थई शके छे, अरे! आठ वर्षनी
नानी बालिका हो, सिंह हो के देडकुं हो–ते पण अंतर्मुख थईने आवी द्रष्टि
प्रगट करी शके छे. आवी द्रष्टि प्रगट करीने शुद्ध आत्मानो अनुभव कर्या
वगर कोई जीवने धर्मनी शरूआत थती नथी.
प्रवेशी गयो नथी, माटे द्रव्यस्वभावनो अनुभव करतां आत्मा शुद्धपणे अनुभवाय छे. आवो
शुद्ध–स्वभाव पर्याये–पर्याये प्रकाशमान छे, क्यारेय तेनो अभाव नथी.
केवळज्ञान सुधी बधी पर्यायो वखते आत्मानो स्वभाव नित्य व्यवस्थित छे, ओछुं अने वधारे
एवा भेद तेमां नथी. मतिज्ञान वखते स्वभावसामर्थ्य कांई घटी गयुं के केवळज्ञान वखते
स्वभावसामर्थ्य कांई वधी गयुं–एम नथी, स्वभाव सामर्थ्य तो सदाय एवुं ने एवुं अवस्थित
छे. आवा स्वभावसामर्थ्यने प्रतीतमां लईने तेनो आश्रय करतां पर्यायमां शुद्धतानी वृद्धि थती
जाय छे खरी. परंतु ते वखते साधकनी द्रष्टि तो एकरूप व्यवस्थित स्वभाव उपर ज पडी छे, भेद
अने अशुद्धता तेनी द्रष्टिमां अभूतार्थ छे. नित्य व्यवस्थित एवा भूतार्थस्वभावनी द्रष्टिमां
हीनाधिकताना प्रकारो देखाता नथी. आवा स्वभावनी द्रष्टिथी शुद्ध आत्मानो अनुभव थाय छे.
तो अनंत गुणनो पिंड एक समयमां परिपूर्ण वस्तु छे, तेने एक गुणथी भेद पाडीने लक्षमां लेवा
जतां आखी वस्तु ज्ञानमां आवती नथी पण विकल्पनी उत्पत्ति थाय छे. व्यवहारथी जोतां
वस्तुमां गुण–पर्यायना भेदो छे ते भूतार्थ–विद्यमान छे परंतु ते भेदनी सन्मुखताथी धर्मनी
उत्पति थती नथी–पण रागनी उत्पत्ति थाय छे; धर्मनी उत्पत्ति तो नित्य एकस्वरूपे अवस्थित
एवा अभेदआत्मस्वभावनी सन्मुखताथी ज थाय छे. ते अभेद वस्तुना अनुभवमां गुण–पर्या–