Atmadharma magazine - Ank 123
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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शकातुं नथी. भेदना आश्रये स्वभावमां एकता थती नथी पण रागनी उत्पत्ति थाय छे.
चैतन्यस्वभावनी द्रष्टिथी जोतां रागादि अशुद्धभावो अभुतार्थरूप छे; तेथी भुतार्थस्वभावनी
द्रष्टि करतां ते रागादि भावोथी रहित एवा शुद्ध आत्मानी अनुभूति थाय छे.
शिष्ये पूछयुं हतुं के पर्यायमां विकार होवा छतां शुद्धआत्मानो अनुभव कई रीते थाय?
तेना उत्तरमां श्री आचार्यदेवे आ वात समजावी छे. हे भाई! पर्यायमां विकार देखीने तुं मुंझा
नहि, केम के तारो आत्मा ते विकार जेटलो नथी, तारो आखो स्वभाव विकाररूप थई गयो
नथी, तारो द्रव्यस्वभाव तो एकरूप शुद्ध छे, ते स्वभाव तरफ वळीने अनुभव करतां विकार
रहित शुद्धआत्मानो अनुभव थाय छे. आवा स्वभावनी द्रष्टि करे त्यारथी ज धर्मनी शरूआत
थाय छे. आवी शुद्धस्वभावनी अपूर्व द्रष्टि गृहस्थाश्रममां पण थई शके छे, अरे! आठ वर्षनी
नानी बालिका हो, सिंह हो के देडकुं हो–ते पण अंतर्मुख थईने आवी द्रष्टि प्रगट करी शके छे.
आवी द्रष्टि प्रगट करीने शुद्धआत्मानो अनुभव कर्या वगर कोई जीवने धर्मनी शरूआत थती
नथी.
(–समयसार गा. १४ उपरना प्रवचनमांथी)
सम्यक् पुरुषार्थ
‘बधी पर्यायो क्रमबद्ध ज थाय छे’
अथवा तो सर्वज्ञ भगवाने जोयुं तेम ज थाय
छे–एम मानो तो पछी जीवनो कांई पुरुषार्थ
नथी रहेतो’–एम अज्ञानीओ कहे छे; पण –
खरेखर तो क्रमबद्धपर्यायनो अने
सर्वज्ञनो निर्णय थया विना सम्यक् पुरुषार्थ
थतो ज नथी. जेने सर्वज्ञनो निर्णय नथी–
क्रमबद्ध पर्यायनो निर्णय नथी, ने फेरफार
करवानी बुद्धि छे तेनो पुरुषार्थ मिथ्यात्व अने
रागद्वेषमां ज अटकेलो छे, तेने
ज्ञानस्वभावनी सन्मुखतानो यथार्थ पुरुषार्थ
होतो नथी. अने जेने क्रमबद्धपर्यायनो तथा
सर्वज्ञनो निर्णय छे तेनो पुरुषार्थ पोताना
ज्ञानस्वभावनी सन्मुख वळी गयेलो छे–ए
ज मोक्षनो सम्यक् पुरुषार्थ छे.
(–चर्चा उपरथी)
*
आटलुं समजी लेवुं.......के.........
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप
वीतरागभाव ज छे, अने तेना सेवनथी
ज भवभ्रमणनो अंत आवे छे; एना
सिवाय बीजा जे कोई भेदो के बाह्य
साधनोने धर्म कह्यो होय तेने व्यवहारथी
ज उपचारमात्र धर्मसंज्ञा जाणवी परंतु
अंतरना वीतरागभावरूप धर्मने तो जे
न जाणे अने उपचाररूप बाह्यसाधनोने
ज धर्म मानीने अंगीकार करे तो ते जीव
वास्तविक धर्मने पामतो नथी परंतु
संसारमां ज भ्रमण करे छे. आ रहस्यने
जे जाणतो नथी तेने धर्मनी साची श्रद्धा
नथी अने तेथी ते जीव धर्म पामतो
नथी.
*
ः प८ः आत्मधर्मः १२३