चैतन्यस्वभावनी द्रष्टिथी जोतां रागादि अशुद्धभावो अभुतार्थरूप छे; तेथी भुतार्थस्वभावनी
द्रष्टि करतां ते रागादि भावोथी रहित एवा शुद्ध आत्मानी अनुभूति थाय छे.
नहि, केम के तारो आत्मा ते विकार जेटलो नथी, तारो आखो स्वभाव विकाररूप थई गयो
नथी, तारो द्रव्यस्वभाव तो एकरूप शुद्ध छे, ते स्वभाव तरफ वळीने अनुभव करतां विकार
रहित शुद्धआत्मानो अनुभव थाय छे. आवा स्वभावनी द्रष्टि करे त्यारथी ज धर्मनी शरूआत
थाय छे. आवी शुद्धस्वभावनी अपूर्व द्रष्टि गृहस्थाश्रममां पण थई शके छे, अरे! आठ वर्षनी
नानी बालिका हो, सिंह हो के देडकुं हो–ते पण अंतर्मुख थईने आवी द्रष्टि प्रगट करी शके छे.
आवी द्रष्टि प्रगट करीने शुद्धआत्मानो अनुभव कर्या वगर कोई जीवने धर्मनी शरूआत थती
नथी.
छे–एम मानो तो पछी जीवनो कांई पुरुषार्थ
नथी रहेतो’–एम अज्ञानीओ कहे छे; पण –
थतो ज नथी. जेने सर्वज्ञनो निर्णय नथी–
क्रमबद्ध पर्यायनो निर्णय नथी, ने फेरफार
करवानी बुद्धि छे तेनो पुरुषार्थ मिथ्यात्व अने
रागद्वेषमां ज अटकेलो छे, तेने
ज्ञानस्वभावनी सन्मुखतानो यथार्थ पुरुषार्थ
होतो नथी. अने जेने क्रमबद्धपर्यायनो तथा
सर्वज्ञनो निर्णय छे तेनो पुरुषार्थ पोताना
ज्ञानस्वभावनी सन्मुख वळी गयेलो छे–ए
ज मोक्षनो सम्यक् पुरुषार्थ छे.
ज भवभ्रमणनो अंत आवे छे; एना
साधनोने धर्म कह्यो होय तेने व्यवहारथी
ज उपचारमात्र धर्मसंज्ञा जाणवी परंतु
न जाणे अने उपचाररूप बाह्यसाधनोने
ज धर्म मानीने अंगीकार करे तो ते जीव
संसारमां ज भ्रमण करे छे. आ रहस्यने
जे जाणतो नथी तेने धर्मनी साची श्रद्धा
नथी.