ओळखे छे, पण आत्माने ओळखता नथी. शरीरमां रोग थाय त्यां पूछे के भाई! केम छे? पण आत्मामां
अनादिनो अज्ञाननो रोग लागु पडयो छे, तेना खबर कोई पूछे छे? अहींथी मरीने आत्मा क्यां जशे? अरे! आ
शरीर तो अल्पकाळ रहेवानुं छे, आत्मा साथे ते सदा रहेवानुं नथी. ने अंदर पुण्य–पाप, क्रोध–मान–माया वगेरेना
जे भावो थाय छे ते पण क्षणिक लागणीओ छे, ते पण धर्म नथी. अंतरमां ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा कायम रहेनारुं
तत्त्व छे ते शुं छे तेने ओळखवुं जोईए. आ मनुष्यभव पामीने हवे मारुं हित केम थाय? तेनी जेने दरकार नथी
अने एम ने एम संसारनी मजूरीमां जीवन वीतावे छे तेनुं जीवन तो पशु जेवुं छे. भाई! ज्यां आ शरीर पण
तारुं नथी, तो पछी बहारनां प्रत्यक्ष जुदा आवा स्त्री–पुत्र–पैसा वगेरे तो कयांय रह्या! पैसा रळवा तेमां अज्ञानीने
सुख लागे छे, पण पैसा रळवानो भाव ते तो पापभाव छे, पण अज्ञानीने सन्नेपातीआनी जेम तेमां सुख लागे
छे. परनो ओशियाळो थईने जीवे छे ते ज दुःख छे. हुं ज्ञानमूर्ति भगवान छुं–एम तो ओळखतो नथी ने मारे पर
चीज विना न चाले एम माने छे ते जीव मोटो दुःखी छे. पर चीज वगर मारे न चाले ए मान्यता ज मोटुं दुःख छे.
जेम हरख सन्नेपातनो रोग थयो होय त्यां ते रोगी हसतो देखाय, पण ते दुःखी छे, थोडां वखतमां ते मरी जशे.
तेम अज्ञानी जीवने मिथ्याश्रद्धा–मिथ्याज्ञान–मिथ्याचारित्ररूप त्रिदोष थयो छे तेथी ते हरख सन्नेपातीआनी माफक
स्त्री–पुत्र–पैसा वगेरेमां सुख मानीने त्यां होश करे छे, पण ते सुखी नथी, ते आकुळताथी दुःखी ज छे.
शरीर वगेरे संयोगना आधारे आत्माना गुण–दोष नथी, पण शरीर ते हुं, पैसा मारा, पैसामां मने सुख छे एवुं
जेने मिथ्याअभिमान छे ते जीवने मिथ्यात्वनो मोटो दोष छे ने शरीरादिथी भिन्न ज्ञानानंद स्वरूपनुं जेने भान छे
ते जीव गुणवान छे. चोखा लेवा जाय त्यां पण जाते नमूनो तपासीने परीक्षा करीने ल्ये छे, तो धर्म शुं चीज छे ते
पण परीक्षा करीने ओळखवुं जोईए. पोते ओळख्या वगर एम ने एम मानी ल्ये के देव–गुरुए कह्युं ते साचुं;–पण
पोते तेना भावने न ओळखे तो पोताने लाभ थाय नहि; साचा–खोटानी परीक्षा जाते करवी पडशे.
सम्यग्ज्ञाननो लाभ थाय नहि. माटे देव–गुरुए जे कह्युं तेमां हेय–ज्ञेय ने उपादेय तत्त्वोनी परीक्षा करीने जाते
ओळखवुं जोईए.
जोईए. हवे अंदर जे राग–द्वेषना भाव थाय छे ते पण क्षणिक छे, तेमांय जीवनुं सुख नथी. अंदरमां ज्ञानस्वरूप
आत्मा छे, ते ज्ञानमां पांच वर्ष पहेलांनी वात