Atmadharma magazine - Ank 123
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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पण अत्यारे जणाय छे. दूरनी वस्तु अहीं बेठा बेठा पण ज्ञानना ख्यालमां आवे छे. विकार पूर्वे थयो होय
तेने अत्यारे ज्ञान जाणे छतां ज्ञानमां तेवो विकार थतो नथी. जुओ आ ज्ञाननो स्वभाव!! ज्ञान तो जाणनार
स्वरूप छे, ते ज्ञानमां विकार नथी, संयोग नथी. आवी ज्ञानस्वभावी वस्तु आत्मा छे–तेने ओळख. बजारमां साकर
लेवा जाय तो त्यां मोळी साकर पसंद नथी करतो, तो आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे, ते स्वभाव पूरुं जाणवाना
सामर्थ्यवाळो छे, ते ज्ञाननी मोळी अवस्था पास करवा जेवी नथी पण पूरेपूरुं जाणे एवी पूर्ण अवस्था ज
आदरणीय छे. भाई, तारो ज्ञानस्वभाव पूरुं जाणे एवो छे, पण राग–द्वेष करीने अटके तेवो स्वभाव नथी,–आम
ज्ञान स्वभावनो निर्णय कर. आवो निर्णय करीने ज्ञानस्वभावनो आदर करवो ते हितनो उपाय छे.
भाई! आत्मानो स्वभाव सर्वज्ञ थईने पूरुं जाणे एवो छे, तेने बदले, स्त्री–पैसा–शरीर वगेरेमां मारुं सुख
–एम मानीने राग–द्वेष–मोहमां अटकी गयो छे तेथी ज्ञान संकोचाई गयुं छे, पण ज्ञानमां सर्वज्ञता थवानी ताकात
छे–तेने ओळखीने तेमां एकाग्र थाय तो पुरी सर्वज्ञता खीली जाय, ने राग–द्वेष टळी जाय. जेम लींडीपीपरमां
चोसठपोरी तीखासरूपे थवानी ताकात छे, पण ते व्यक्त थाय त्यारे दवामां काम आवे, तेम सर्वज्ञभगवान अने
संत–मुनिओ कहे छे के भाई! तारामां सर्वज्ञपद थवानी ताकात पडी छे, तेमांथी सर्वज्ञता प्रगटे ते पसंद करवा जेवुं
छे, ते सिवाय अल्पज्ञता अने रागद्वेष ते पसंद करवा जेवा नथी. आवुं अंतरमां भावभासन थवुं जोईए. तने
अंदर भास थवो जोईए. के अहो! हुं तो ज्ञान स्वरूप जीवतत्त्व छुं, पुण्य–पाप तत्त्व ते मारी कायमनी चीज नथी,
ने बहारना संयोग–वियोग ते पण मारी चीज नथी. संयोगथी तद्न जुदो छुं, क्षणिक पुण्य–पापनी लागणी पण
मारुं वास्तविक स्वरूप नथी, मारामां सर्वज्ञतानुं सामर्थ्य भर्युं छे–एम ओळखीने ते परिपूर्ण स्वभाव–सामर्थ्यनो
आदर करवो ते हितनो उपाय छे. जीवनमां जेणे आ वातनो अभ्यास कर्यो हशे ने आत्मानी दरकार करी हशे तेने
मृत्यु टाणे तेनुं लक्ष रहेशे. पण जीवनमां जेणे दरकार करी नथी ते मृत्यु टाणे कयांथी लावशे? जीवनमां जेवी भावना
घूंटी हशे तेवो सरवाळो आवीने ऊभो रहेशे. जुओ, आंगणे मोटो राजा आव्यो होय ने ते ज वखते दुकाने बे
आनानो माल लेवा भरवाड आव्यो होय, तो त्यां मोटा राजानो आदर करे छे, भरवाड पासे रोकातो नथी; तेम
जेने आत्मानुं हित करवुं छे, आत्मानुं कल्याण करवुं छे ते जीव अंतरमां चैतन्यराजानो आदर करे छे, पण क्षणिक
पुण्य–पापना के संयोगना आदरमां रोकातो नथी. समयसारमां पण कह्युं छे के जेम धननो लोभी माणस राजाने
ओळखीने तेनी सेवा करे छे तेम जेने पोताना आत्मानुं हित करवुं छे एवा आत्मार्थी जीवे जीव–राजाने ओळखीने
तेनी श्रद्धा–बहुमान करवुं, तेनी सेवा करवी. तेनी आराधना करवी. ‘अहो! मारो आत्मा तो चैतन्यस्वभाव छे, ते
राग जेटलो नथी, शरीर आदि संयोग साथे मारे कांई लागतुं वळगतुं नथी’–एम चैतन्यस्वभावने ओळखे तो
आत्मानुं कल्याण थाय छे. माटे सत्समागमे परीक्षा करीने आ वात बराबर ओळखवा जेवी छे.
(वीर सं. २४८० ना मागशर सुद छठ्ठना रोज पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन)