Atmadharma magazine - Ank 123
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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हे भव्य! तुं तारा आत्माने मोक्षमार्गमां स्थाप
अरे जीव! अत्यार सुधी तो तारो काळ बंधमार्गमां वीत्यो, परंतु
हवे तो तुं मोक्षमार्गमां स्थित था! “अरेरे! अत्यार सुधी मिथ्याभावो
सेव्या तो हवे मोक्षमार्ग केम थई शकशे?”–एम तुं मुंझाईश नहीं; केम के
अनादिथी पोतानी ऊंधी बुद्धिने लीधे मिथ्याभावोनुं सेवन कर्यु होवा
छतां–पण, पोतानी सवळी बुद्धिना प्रयत्नथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी
आराधना करीने आत्माने मोक्षमार्गमां स्थापी शकाय छे. माटे हे भव्य!
हवे तुं तारा आत्माने निश्चयरत्नत्रयरूप मोक्षमार्गमां अति द्रढपणे
स्थाप.
*
आत्मस्वभावना स्वाश्रये प्रगटता निश्चय सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते ज मोक्षमार्ग छे; मोक्षना इच्छक
पुरुषे आवा निश्चयरत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग एक ज सदा सेववा योग्य छे. आवा मोक्षमार्गनो उपदेश करतां
आचार्यदेव कहे छे के–हे भव्य!
तुं स्थाप निजने मोक्षपंथे, ध्या, अनुभव तेहने,
तेमां ज नित्य विहार कर, नहि विहर परद्रव्यो विषे.
तुं मोक्षमार्गमां पोताना आत्माने स्थाप, तेनुं ज ध्यान कर, तेने ज चेत–अनुभव अने तेमां ज निरंतर
विहार कर; अन्य द्रव्योमां विहार न कर.
सामे श्रोता तरीके मोक्षार्थी जीव ऊभो छे तेने संबोधीने कहे छे के हे भव्य! तुं तारा आत्माने मोक्षमार्गमां
स्थाप. अहीं आत्माने मोक्षमार्गमां स्थापवानुं कह्युं तेमां ए वात आवी गई के अत्यार सुधी आत्मा मोक्षमार्गमां
स्थित थयो नथी पण रागादि बंधभावोमां ज स्थित थयो छे; अने हवे ते बंधभावोथी छूटीने मोक्षमार्गमां स्थित
थवुं ते पोताना स्वाधीन प्रयत्नथी थाय छे. हे भव्य! तारो आत्मा अनादि संसारथी मांडीने पोतानी प्रज्ञाना
दोषथी पर द्रव्यमां–राग–द्वेषादिमां निरंतर स्थित रहेलो होवा छतां, पोतानी प्रज्ञाना गुणवडे ज तेमांथी पाछो
वाळीने तेने अति निश्चळपणे दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां निरंतर स्थाप.
अनादिककाळथी पोतानी बुद्धिना अपराधने लीधे ज जीव मिथ्यात्वादि बंधमार्गमां रोकाई गयो छे, कर्मोए
जीवने संसारमां रखडाव्यो एम नथी. जो कर्मो ज जीवने संसारमां रखडावता होय तो आत्माने मोक्षमार्गमां स्थित
थवानो उपदेश न होई शके. जो कर्म जीवने रखडावतुं होय तो कर्मने संबोधीने एम कहेवुं जोईए के ‘अरे कर्म! हवे
तुं आत्माने छोड!’ पण अहीं तो जीवने संबोधीने कहे छे के हे भव्य! तुं तारा आत्माने मोक्ष–मार्गमां स्थाप,
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां निश्चलपणे स्थाप. अत्यारसुधी बंधमार्गमां पण तारी ऊंधी बुद्धिथी तें ज तारा
आत्माने स्थाप्यो हतो अने हवे तुं ज तारी बुद्धिने अंतरमां वाळीने तारा आत्माने मोक्षमार्गमां स्थाप. तारो
मोक्षमार्ग तारा ज हाथमां छे. जो पोताना मोक्षनो प्रयत्न पोताना हाथमां ज न होय ने परना हाथमां होय तो
जीवने मोक्षमार्गमां स्थापवानो उपदेश नकामो जाय. अनादि संसारथी–नित्य निगोदमां हतो त्यारे पण जीव
पोताना ऊंधा भावने लीधे ज त्यां रह्यो हतो. आ प्रमाणे
पोषः २४८०
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