Atmadharma magazine - Ank 123
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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बंधमार्गमां जीवना अपराधनी स्वतंत्रता बतावीने आचार्य भगवान कहे छे के अरे जीव! अत्यार सुधी तो तारो
काळ बंधमार्गमां वीत्यो, परंतु हवे तो तुं मोक्षमार्गमां स्थित था! ‘अरेरे! अत्यार सुधी मिथ्याभावो सेव्या तो हवे
मोक्षमार्ग केम थई शकशे?’–एम तुं मुंझाईश नहीं; केमके अनादिथी पोतानी ऊंधी बुद्धिने लीधे मिथ्याभावोनुं सेवन
कर्युं होवा छतांपण, पोतानी सवळी बुद्धिना प्रयत्नथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी आराधना करीने आत्माने
मोक्षमार्गमां स्थापी शकाय छे. माटे हे भव्य! हवे तुं तारा आत्माने निश्चय रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गमां अति द्रंढपणे
स्थाप.
जुओ, आवो मोक्षमार्गनो उपदेश सांभळनार श्रोतानी केटली जवाबदारी छे?
प्रथम तो, रागथी धर्म मनावनारा कुदेव–कुगुरुने मानतो न होय; जो कुदेव–कुगुरुने मानतो होय तो ते
पोताना आत्माने मोक्षमार्गमां स्थापी शके नहि. यथार्थ मोक्षमार्ग बतावनारा साचा देव–गुरुने ज ते माने छे.
बीजुं, जे जीव निमित्तथी लाभ–नुकशान थवानुं मानतो होय अथवा व्यवहाररत्नत्रयना शुभरागने मोक्षनुं
कारण मानतो होय ते पण निश्चयरत्नत्रयरूप मोक्षमार्गमां आत्माने स्थापवानो उद्यम करी शके नहि. जे जीव
मोक्षमार्गनो उद्यमी छे ते कोई पण परना के रागना अवलंबनथी मोक्षमार्ग थवानुं मानतो नथी.
कर्मनो उदय मने विकार करावशे–एवी जेनी द्रष्टि होय ते पण मोक्षमार्गनो उद्यम करी शके नहि. अहीं तो
जेने बंधमार्गमां तेम ज मोक्षमार्गमां–बंनेमां पोतानी स्वतंत्रता भासी छे ने अंतरमां हवे मोक्षमार्ग साधवानो
उत्साह जाग्यो छे एवा जीवने आचार्यभगवान कहे छे के हे भव्य! निश्चय सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र स्वरूप एक ज
मोक्षमार्ग छे, तेमां ज तुं तारा आत्माने निश्चलपणे स्थाप. ‘माराथी मोक्षमार्ग नहि थई शके’–एवी शंका श्रोताने
पण पडती नथी.
जे जीव लायक थईने विनयपूर्वक श्रवण करवा आव्यो छे अने आत्माना हित सिवाय बीजो कोई हेतु जेने
नथी एवा भव्य जीवने आचार्यदेव मोक्षमार्गनो उपदेश आपे छे के हे जीव! तारा आत्माना निश्चय श्रद्धा–ज्ञान–
चारित्ररूप मोक्षमार्ग छे तेमां तुं तारा आत्माने स्थिर कर. ‘चैतन्यस्वभाव ते हुं’ एम न समजतां, ‘राग–द्वेष ते
हुं, शरीर ते हुं’–एम मानीने अज्ञानभावथी अत्यार सुधी तो विकारमां ज निरंतर एकाग्र थयो, परंतु ते आत्मानो
स्वभाव नथी एम समजीने हे भव्य! हवे तुं तेनाथी पाछो वळ.....पाछो वळ. अने निर्विकार चैतन्यमूर्ति
स्वभावनी सन्मुख थईने तेमां स्थिरता कर.–आ ज तारा हितनो पंथ छे.
हे जीव! तने कोई बीजाए रखडाव्यो नथी तेम ज तने कोई बीजो तारनार नथी; पण तुं तारी प्रज्ञाना दोषने
लीधे ज संसारमां रखडयो छे, ने हवे तारी प्रज्ञाना गुण वडे ज तुं संसारथी पाछो फरीने मोक्षमार्गमां स्थिर था.
प्रज्ञानो दोष एटले शुं?
चैतन्यस्वभावनी महत्ता कबूलीने ज्ञान ते तरफ न वळतां, राग ते ज हुं एम मानीने रागमां ज ज्ञान
एकाग्र थयुं ते प्रज्ञानो दोष छे, तेने लीधे ज जीव संसारमां रखडे छे.
प्रज्ञानो गुण एटले शुं?
शुद्ध चैतन्यस्वभाव ते हुं ने राग ते हुं नहि–एम अंतरमां भेदज्ञान करीने, ज्ञान रागथी छूटुं पडीने चैतन्य
स्वभावमां एकाग्र थयुं–तेनुं नाम प्रज्ञानो गुण छे, ते मोक्षनुं कारण छे. प्रज्ञानो गुण एम कहेतां तेमां सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग आवी जाय छे; हे जीव! तुं प्रयत्न वडे तारा आत्माने आवा मोक्षमार्गमां स्थाप,–एवो
अचलपणे स्थाप के वच्चे कदी तूट पडया वगर अल्पकाळमां मुक्तदशा प्रगटी जाय.
अहीं आत्माने मोक्षमार्गमां स्थापवानुं कह्युं एटले के शुद्ध द्रव्यस्वभावनुं अवलंबन लईने तुं तारा
आत्मामां मोक्षमार्गनी पर्याय प्रगट कर. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग शुद्ध आत्माना आश्रये ज प्रगटे छे.
शुद्ध आत्मानो आश्रय लईने जेणे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट कर्या तेणे पोताना आत्माने बंधमार्गथी पाछो
वाळीने मोक्षमार्गमां स्थाप्यो छे. शुद्ध आत्माना आश्रये प्रगटेला निश्चयरत्नत्रय ते ज नियमरूप मोक्षमार्ग छे,
एनाथी जुदो बीजो कोई मोक्षमार्ग नथी. तेने बदले
ः प०ः
आत्मधर्मः १२३