Atmadharma magazine - Ank 124
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २०१० : आत्मधर्म–१२४ : ७३ :
(पाना नं. ७२ थी चालु)
निमित्त छे; जे जीव भेदनुं अवलंबन छोडीने भूतार्थ स्वभावनुं अवलंबन करे तेने ज ते भेदरूप व्यवहार
निमित्त कहेवाय छे, परंतु ते भेदनुं अवलंबन करतां करतां तेनाथी परमार्थनो अनुभव थई जशे एम कदी
बनतुं नथी.
जुओ, आमां पण उपादान–निमित्तनी वात आवी. कई रीते? के ज्यां उपादानमां अभेदनी द्रष्टिथी
निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगटे त्यां भेदरूप व्यवहार ते निमित्त छे, उपादान वगर एकला व्यवहारने तो निमित्त
पण कहेवाय नहि. जेम निमित्तने लीधे कार्य थतुं नथी तेम व्यवहारना अवलंबनथी परमार्थ पमातो नथी.
जुओ, आ निश्चय–व्यवहार अने उपादान–निमित्तनी वात मुख्य प्रयोजनरूप समजवा जेवी छे अने तेमां
ज लोकोनी मोटी भूल छे, तेथी व्याख्यानमां वारंवार तेनी स्पष्टता आवे छे. निमित्तने लीधे कार्य थाय,
अने व्यवहार करतां करतां तेना अवलंबने निश्चय पमाई जाय एम माननारा बंने एक ज जातनी
मान्यतावाळा मिथ्याद्रष्टि छे.
जेम व्यवहारनय अनुसरवा योग्य नथी तेम निमित्त पण अनुसरवा योग्य नथी. व्यवहार अने निमित्त
बंने अभूतार्थ छे. निमित्तनो तो आत्मामां त्रिकाळ अभाव छे, अने व्यवहार एक समयपूरतो पर्यायमां छे
पण त्रिकाळीस्वभावमां तेनो अभाव छे; आ रीते निमित्त अने व्यवहार बंने अभूतार्थ छे, तेथी ते अनुसरवा
योग्य नथी, तेना उपर जोर आपवाथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी. व्यवहारनुं अवलंबन करवाथी सम्यग्दर्शन थाय?
–न थाय. निमित्तनुं अवलंबन करवाथी सम्यग्दर्शन थाय? –न थाय. अनेक प्रकारना निमित्तो अने व्यवहारो
होय भले पण ते कोईना अवलंबने सम्यग्दर्शन थतुं नथी. भूतार्थस्वभावना अवलंबने ज सम्यग्दर्शन थाय छे.
सम्यग्दर्शननो एक ज नियम छे के ज्यां ज्यां सम्यग्दर्शन थाय छे, त्यां त्यां उपादाननी ताकातथी ज थाय छे,
अने जेने सम्यग्दर्शन थाय छे तेने पोताना भूतार्थस्वभावनी द्रष्टिथी ज सम्यग्दर्शन थाय छे. जीवोने
समजाववा माटे उपदेश तो अनेक प्रकारे जुदी जुदी शैलीथी आवे, पण उपादाननी विधिनो तो एक ज प्रकार छे,
अंतरमां ऊतरीने जे समये ज्ञायकस्वभावने द्रष्टिमां पकड्यो ते ज समये सम्यग्दर्शन छे, त्यां बधाय निमित्तो ने
व्यवहारो एककोर रही जाय छे एटले के ते बधायनुं अवलंबन छूटी जाय छे. अहो! वस्तुस्थिति ज आ छे –
पण समजाववुं कई रीते! समजावतां वच्चे व्यवहार आवी जाय छे. कह्युं छे के :–
‘उपादान विधि निरवचन है निमित्त उपदेश’
उपदेशमां तो अनेक प्रकारथी कथन आवे, त्यां निमित्तना अने व्यवहारना कथनने ज अज्ञानी वळगी
रहे छे, पण ते कथननो परमार्थ आशय शुं छे तेने ते समजतो नथी. –शुं थाय!! पोते अंदरमां पात्र थईने
वस्तुस्थिति समजे तो समजाय, एनी पात्रता विना ज्ञानी शुं करे? एनी पात्रता थया विना साक्षात् तीर्थंकर
भगवान पण तेने समजावी शके नहि. उपादाननी लायकात विना बीजो शुं करे? उपादाननी लायकात होय तो
बीजामां निमित्त तरीकेनो उपचार आवे.
अहो! ज्यां जुओ त्यां उपादाननी विधिनो एक ज प्रकार छे. अमुक वखते अमुक प्रकारनी पर्याय केम
थई? –के एवी ज ते उपादाननी योग्यता. सम्यग्दर्शन केम थयुं? –के पर्यायनी लायकातथी; राग केम थयो?–के
पर्यायनी तेवी लायकातथी. आ रीते उपादान निरवचन छे एटले के तेमां एक ज प्रकार छे, एक ज उत्तर छे,
आम केम? –के एवी ज उपादाननी योग्यता. ए खास ध्यान राखवुं के ‘उपादाननी योग्यता’ एम जे वारंवार
कहेवामां आवे छे ते त्रिकाळी शक्तिरूप नथी पण एक समयनी पर्यायरूप छे, एकेक समयनी पर्यायमां पोतानी
स्वतंत्र ताकात छे तेने उपादाननी योग्यता कहेवामां आवे छे. समय समयनी पर्यायना स्वतंत्र उपादाननी
लोकोने खबर नथी एटले निमित्त आवे तो पर्याय थाय एम भ्रमथी माने छे, तेमां एकली संयोगी–पराधीन
द्रष्टि छे. अहो! एकेक समयनी पर्यायनुं स्वतंत्र उपादान! –तेनो निर्णय करवामां तो वीतरागीद्रष्टि थई जाय
छे. वस्तुस्वरूप ज आ छे, पण अत्यारे तो लोकोने आ वात कठण थई पडी छे. उपादाननी योग्यता कहो,
पर्यायनी ताकात कहो, अवस्थानी लायकात कहो, पर्यायधर्म कहो, स्वकाळ कहो, काळलब्धि कहो, पोतानो उत्पाद
कहो, पोतानो अंश कहो, क्रमबद्धपर्याय कहो, नियत कहो के ते प्रकारनो पुरुषार्थ कहो–ए बधुं एक ज छे, तेमांथी
एक पण बोलनो जो यथार्थ
(अनुसंधान माटे जुओ पान : ७७)