: ७४ : आत्मधर्म–१२४ : महा: २०१० :
धर्मात्मानो वैराग्य
रागी जीव बंधाय छे, वैरागी जीव छूटे छे
(आसो वद चोथना दिवसे पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी)
ज्ञानीना वैराग्यनुं साचुं स्वरूप शुं छे ते आमां बताव्युं
छे. अज्ञानी लोको अंतरनी द्रष्टिने ओळख्या वगर बहारथी
वैराग्यनुं माप काढे छे; बहारमां कांईक त्याग के मंदकषाय देखे
त्यां तेने वैरागी मानी ले छे, पण ते वैराग्यनुं साचुं स्वरूप
नथी. सम्यग्ज्ञानपूर्वक ज साचो वैराग्य होय छे, समकीति
गृहस्थपणामां रह्या होय तोपण परमार्थे ते वैरागी छे....
अंतरद्रष्टिमां वैराग्यनुं परिणमन तेने सदाय वर्त्या ज करे छे.
अज्ञानीने साचो वैराग्य होतो नथी. ‘हुं समस्त शुभाशुभ
परिणामथी जुदो एक ज्ञायकभावस्वरूप छुं, मारा अवलंबने ज
मारी मुक्ति छे’ –आम जाणीने जे जीव स्वभावसन्मुख
परिणम्यो ते ज साचो वैरागी छे....स्वभावना अवलंबनरूप
वैराग्यभाव ते मोक्षनुं कारण छे, अने परावलंबनरूप
रागभाव ते बंधनुं कारण छे, आवो जिनेन्द्रभगवाननो उपदेश
छे.
आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, तेना अवलंबने ज आत्मानो मोक्षमार्ग छे, ए सिवाय शुभ–अशुभ कर्मोना
अवलंबने आत्मानो मोक्षमार्ग नथी. देहथी भिन्न अने क्षणिक रागथी पार आत्मानो चैतन्यस्वभाव छे, ते
स्वभावनी सन्मुख थईने शुभ–अशुभ समस्त रागनी रुचि जेणे छोडी छे एवा सम्यग्द्रष्टि–वैरागी जीवो ज
कर्मथी छूटे छे; परंतु जेओ आत्माना ज्ञानस्वभावने जाणता नथी ने शुभ–अशुभ रागने ज मोक्षनुं साधन
मानीने तेनुं सेवन करे छे एवा मिथ्याद्रष्टि–रागी जीवो कर्मथी बंधाय छे. माटे हे जीव! जो तारे कर्मबंधनथी
छूटवुं होय तो, अशुभ तेमज शुभ बधाय कर्मोनी रुचि छोड अने ज्ञानस्वरूप आत्माने अवलंबीने तेनुं ज
अवलंबन कर. –एम आचार्यदेव समयसारनी १५० मी गाथामां कहे छे–
‘जीव रक्त बांधे कर्मने, वैराग्यप्राप्त मुकाय छे,
ए जिनतणो उपदेश तेथी न राच तुं कर्मो विषे.’
रागी जीव कर्म बांधे छे अने वैराग्यने पामेलो जीव कर्मथी छूटे छे–आ जिनभगवाननो उपदेश छे; माटे
हे भव्य जीव! तुं कर्मोमां प्रीति न कर.
जेने चैतन्यस्वभावनी रुचि नथी ने रागनी रुचि छे; शुभराग करतां करतां आत्माने धर्म थशे एम
माने छे एवा मिथ्याद्रष्टि जीवने ज अहीं ‘रागी’ कह्यो छे. अने जेने चैतन्यस्वभावनी रुचि छे ने रागनी रुचि
टळी गई छे–एवा समकीति जीवने अहीं “वैरागी” कह्या छे. सम्यग्द्रष्टि जीव गृहस्थपणामां रह्या होय अने ते
प्रकारनो राग थतो होय तोपण परमार्थे ते वैरागी छे, केमके राग वखते पण तेनी द्रष्टिमां चैतन्यस्वभावनी ज
अधिकता वर्ते छे. अने मिथ्याद्रष्टि जीव राजपाट छोडीने त्यागी थयो होय, जंगलमां रहेतो होय, द्रव्यलिंगी
दिगंबरमुनि थईने पंचमहाव्रत पाळतो होय तोपण खरेखर ते वैरागी नथी पण रागी ज छे, केमके अंतरमां
आ शुभराग मने हितकर छे एवा अभिप्रायथी तेने रागनुं अवलंबन