Atmadharma magazine - Ank 124
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २०१०: आत्मधर्म–१२४ : ७२ :
व्यवहारनयना आश्रये
कल्यण कम नथ?
(मानस्तंभ–प्रतिष्ठा–महोत्सव दरमियान सोनगढमां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन)
वीर सं. २४७९, चैत्र सुद पांचम.
‘अहो! आ परथी भिन्न मारा ज्ञायकतत्त्वनी वात
छे, मारा ज्ञायकतत्त्वनी प्रतीत करवामां कोई रागनुं
अवलंबन छे ज नहि’ –आवा लक्षपूर्वक एटले के
स्वभावना उत्साहपूर्वक एकवार पण जे जीव आ वात
सांभळे ते भव्यजीव जरूर अल्पकाळमां मुक्ति पामे छे.
आ एमने एम सांभळी लेवानी वात नथी पण
सांभळनार उपर निर्णय करवानी जवाबदारी छे.
जेने भवनो थाक लाग्यो छे अने आत्मानुं सम्यग्दर्शन प्रगट करीने पोतानुं कल्याण करवा मागे छे एवो
जिज्ञासु शिष्य पात्र थईने पूछे छे के हे भगवान! व्यवहारनयना आश्रये कल्याण केम नथी? श्रीगुरु
परमार्थनो आश्रय कराववा मागे छे ने व्यवहारनो आश्रय छोडाववा मागे छे एटली वात पकडीने विशेष
समजवा माटे जिज्ञासाथी प्रश्न पूछे छे. तेना उत्तरमां आचार्यदेव आ अगियारमी गाथामां कहे छे के हे शिष्य!
निश्चयनय ज आत्माना भूतार्थ–परिपूर्ण स्वभावने बतावनार छे ने तेना ज अवलंबने सम्यग्दर्शन थाय छे
माटे ते ज अंगीकार करवा जेवो छे; व्यवहारनय तो भेदने बतावे छे, ते भेदना आश्रये सम्यग्दर्शन थतुं नथी
माटे ते व्यवहारनय आश्रय करवा जेवो नथी. ‘व्यवहारनय परमार्थनो प्रतिपादक छे’ एम पहेलांं कह्युं हतुं त्यां
कोई ते व्यवहारने ज परमार्थ न मानी ल्ये तेथी आचार्यदेवे स्पष्ट खुलासो कर्यो छे के भूतार्थना आश्रये ज
सम्यग्दर्शन छे, व्यवहारना आश्रये सम्यग्दर्शन नथी. व्यवहारने परमार्थनो प्रतिपादक कह्यो तोपण ते व्यवहार
पोते आश्रय करवा योग्य नथी. अभेदस्वरूप समजावतां भेदथी कथन आव्युं, त्यां ते भेदनुं लक्ष छोडीने
अभेदस्वरूपनो जे अनुभव करे तेने भेदरूप व्यवहार ते परमार्थनुं
(अनुसंधान पाना नं. ७३ उपर)
(पाना नं. ७१ थी चालु)
निश्चयश्रद्धा–ज्ञान–थया पछी ज्ञानीने जे शुभरागरूप व्यवहार होय छे ते व्यवहारना अवलंबने पण कांई धर्म
नथी. आत्माना चिदानंद स्वभावना अवलंबने ज धर्मनी शरूआत थाय छे अने पछी पण ते स्वभावना
अवलंबने ज धर्म टके छे ने वधे छे. आ सिवाय बीजो कोई धर्मनो उपाय नथी. पहेलांं व्यवहार अने पछी
निश्चय, एटले के शुभराग करतां करतां धर्म थाय, –एम जे माने छे ते रागने ज आत्मा माने छे, तेने
ज्ञानस्वरूप आत्मामां एकाग्रता नहि थाय पण रागमां ज एकाग्रता थशे. राग शुं अने रागरहित ज्ञानस्वभाव
शुं–तेने ओळखीने पहेलांं शुद्ध आत्मानी श्रद्धा करे त्यारथी धर्मनी शरूआत थाय छे.
मंगल महोत्सव
जुओ, अहीं मानस्तंभनो महोत्सव चाले छे, ने महोत्सवमां सम्यग्दर्शननी अपूर्व वात आवी छे. जेम
मानस्तंभने जोतां मानी जीवोनां मान गळी जाय छे तेम आ वात समजे तो अनादिनुं मिथ्यामान गळी जाय.
मानस्तंभ ते जिनेन्द्र भगवाननो वैभव छे, ए अपार वैभवने देखतां ज भव्य जीवने एम थाय छे के अहो! आ
भगवाननो अपार धर्मवैभव! आ सर्वज्ञ भगवानने परिपूर्ण आत्मवैभव प्रगटी गयो छे. –आम सर्वज्ञ
भगवाननुं बहुमान आवे छे; सर्वज्ञतानो महिमा आवतां अल्पज्ञतानुं अभिमान रहेतुं नथी. अने, आ सर्वज्ञ
भगवानने जेवुं सामर्थ्य प्रगट्युं छे, तेवुं सामर्थ्य प्रगट थवानी ताकात मारामां पण छे एम स्वभावनुं अंर्तलक्ष
थतां अनादिनुं मिथ्यात्व टळीने अपूर्व सम्यक्त्वदशा प्रगटी जाय छे, अने ते ज खरो मंगळ महोत्सव छे.