Atmadharma magazine - Ank 124
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: महा: २०१० : आत्मधर्म–१२४ : ७१ :
तो त्यां सम्यग्दर्शन रहेतुं नथी; माटे आ महान सिद्धांत छे के आत्माना भूतार्थ स्वभावना आश्रये ज
सम्यग्दर्शन छे.
जीव पूर्वे सम्यग्दर्शन केम न पाम्यो?
जीव अनादिकाळथी एक सेकंड पण सम्यग्दर्शन पाम्यो नथी, तेनुं कारण शुं? सम्यग्दर्शन अपूर्व छे तो
तेनुं कारण पण पूर्वे कदी नहि करेलुं एवुं अपूर्व ज होवुं जोईए. व्यवहार मुनिव्रत धारीने शुभभावथी
अनंतवार नवमी ग्रैवेयक सुधी गयो छतां सम्यग्दर्शन केम न पाम्यो? बधुं करवा छतां शुं साधन बाकी रही
गयुं तेनो अंतरमां विचार करवो जोईए. आ बाबतमां श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के–
यम नियम संयम आप क्यिो,
पुनि त्याग विराग अथाग लह्यो;
वनवास लयो मुखमौन रह्यो,
द्रढ आसन पद्म लगाय दियो.
जप भेद जपे तप त्योंहि तपे,
उरसें ही उदासी लही सबसें;
सब शास्त्रनके नय धारि हिये,
मत मंडन खंडन भेद लिये;
वह साधन वार अनंत कियो,
तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो;
अब क्यों न विचारत है मनसें,
कछु और रहा उन साधनसें;
बिन सद्गुरु कोई न भेद लहे,
मुख आगळ है कह बात कहे?
जीवे बधुं करवा छतां शुं साधन बाकी रही गयुं के जेथी तेनुं भवभ्रमण न मटयुं ते अहीं कहेवाय छे. पोताना
भूतार्थ स्वभावना अवलंबनरूप खरुं साधन जीवे कदी कर्युं नथी. भूतार्थ स्वभावने भूलीने बहारमां बधुं कर्युं पण
भूतार्थ स्वभावने द्रष्टिमां न लीधो, तेथी ज जीव सम्यक्त्व पाम्यो नहि अने तेनुं भवभ्रमण न मटयुं. धर्मी जीवने
राग थाय पण ते वखतेय रागरहित भूतार्थस्वभावनी द्रष्टि तेने खसती नथी. अज्ञानी तो रागमां ज एकाकार
थईने तेनाथी धर्म माने छे, पण रागथी धर्म कदी थतो नथी. ज्ञानीने राग थाय ते राग पण धर्मनुं कारण नथी.
ज्ञानीए शुद्धनयथी पोताना शुद्ध–भूतार्थ स्वभावने जाण्यो छे तेना ज आश्रये तेने धर्म थाय छे. आ ज धर्मनुं साधन
छे; आ साधन जीवे पूर्वे कदी कर्युं नथी. जीव साचुं साधन समज्यो पण नथी तो करे तो क्यांथी? पोतानी कल्पनाथी
बीजां बधां साधन–व्रत–तप–पूजा–शास्त्र भणतर वगेरे कर्यां पण शुद्धनय अनुसार पोताना वास्तविक स्वरूपनो
बोध कदी न कर्यो. हुं कोण छुं ने मारुं खरुं स्वरूप शुं छे ते समज्यो नहि. माटे ज्ञानीओ वारंवार कहे छे के हे भाई!
हवे तुं अंतर्मुख पुरुषार्थथी शुद्धनयनुं अवलंबन लईने तारा परिपूर्ण स्वरूपने जाण, रागरहित शुद्धस्वभावपणे
तारा आत्माने तुं देख, –जेथी तारा भवभ्रमणनो अंत आवे.
धर्मनी रीत
धर्मनी जे रीत छे तेने बदले बीजी रीते धर्म करवा मांगे तो थाय नहि. जेम कोईने शीरो करवो होय तो
पहेलांं तेनी रीत जाणवी जोईए. पहेलांं लोटने घीमां शेकीने पछी तेमां गोळनुं पाणी नांखवानुं होय, तेने
बदले लोटने घीमां शेक्या वगर काचा लोटमां पाणी नांखवा मांडे तो ते मूर्ख कहेवाय, तेनो शीरो न थाय. तेम
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप धर्म छे, तेमां प्रथम सम्यक्श्रद्धा कर्या वगर चारित्र अने व्रत–तप माने तो ते मोटो
मूढ छे. प्रथम अंतरमां आत्माना निश्चयश्रद्धा–ज्ञान जमाव्या वगर एकाग्रता शेमां करशे? सम्यग्दर्शन वगर
मात्र शुभभाव करीने तेमां धर्म अने मुनिपणुं मानी लेशे, तेने तो मिथ्यात्वनुं ज पोषण थशे.
जैनधर्मनो क्रम
जैनधर्मनो क्रम ए छे के पहेलांं सम्यग्दर्शन होय ने पछी ज सम्यक् चारित्र होय; अने ते सम्यग्दर्शन पण
निश्चयस्वभावना अवलंबने ज थाय. तेने बदले जे सम्यग्दर्शन वगर चारित्र माने अथवा तो पहेलांं व्यवहार करतां
करतां तेनाथी निश्चयश्रद्धा–ज्ञान थई जशे–एम माने तेओ जैनधर्मना क्रमने जाणता नथी. जेम कोई एम कहे के शीरो
करवामां पाछळथी तो पाणी नांखवुं ज छे, तो पहेलेथी ज नांखो ने? –तो ते मूर्ख छे. तेम कोई कहे के सम्यग्दर्शन पछी
तो वच्चे व्यवहार आवे छे ने? –तो पहेलो ज व्यवहार कहो ने? –तो एम माननार पण मूढ छे. अरे भाई!
निश्चयश्रद्धा–ज्ञान प्रगट्या वगर तारा व्यवहारने अमे व्यवहार कहेता ज नथी; अने