Atmadharma magazine - Ank 124
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: ६८ : आत्मधर्म–१२४ : महा : २०१० :
नथी. ज्ञानतत्त्वने जाण्या विना भवभ्रमणथी कदी छुटकारो थाय नहि.
आ देहदेवळमां रहेल आत्मा चिदानंद तत्त्व छे, जगतमां ते ज उत्तम छे; आवा चैतन्यतत्त्वनी वात पूर्वे
अनंतकाळमां जीवे खरेखर सांभळी नथी. ‘सांभळी नथी’ एम केम कह्युं? –केमके वात काने तो पडी पण ते
वखते अंतरमां तेनी रुचि करीने पोते समज्यो नहि, तेथी सांभळवानुं तेने निमित्त पण कहेवायुं नहि.
आत्माने जाण्या वगर जीव एकेक सेकंडमां अबजोनी पेदाश करे एवो मोटो राजा अनंतवार थयो, अने रोजनी
सेंकडो गायो कापे एवो मोटो कसाई पण अनंतवार थयो, –पण ते कांई नवीन चीज नथी; अंतरमां
चैतन्यस्वरूप आत्मा शुं छे तेनी समजण वगर बहारनुं गमे तेटलुं करे पण ते कांई जीवने शरणभूत नथी,
अंतरमां हुं ज्ञानस्वरूप आत्मा छुं–एवी साची समजण करवी ते ज जीवने शरणभूत छे.
आ शरीर जीवने शरणभूत नथी. शरीर तो एक काची क्षणमां छूटुं पडी जाय छे. शरीर अहीं पडी रहे छे
ने आत्मा बीजे चाल्यो जाय छे; तो शरीरथी छूटुं चैतन्य तत्त्व कोण छे ते ओळखवुं जोईए. देह तो संयोगी जड
वस्तु छे, तेनो संयोग नवो नवो थाय छे ने आत्मा तो अनादिनो असंयोगी चैतन्यरूप छे. देह देवळमां
चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा जुदो छे. जुदा जुदा अवतारमां देह धारण करवो ते आत्मानुं वास्तविक स्वरूप
नथी पण पूर्वे अपराध कर्यो तेथी अवतार थयो छे. पुण्य अने पाप ए बंने अपराध छे. पापना फळमां
नरकादि मळे ने पुण्यना फळमांय स्वर्गादि मळे, पण ते बंने अपराध छे. जेना फळमां आत्माने संसारमां
रखडवुं पडे ते भाव अपराधस्वरूप छे. आत्मानो चिदानंद स्वभाव अवतार वगरनो छे, तेनी ओळखाण वगर
अवतारनो अंत न आवे.
जुओ, जीवने सुखी थवुं छे ने! तो ते सुख क्यां छे? शरीरमां–पैसामां–मकानमां–आबरूमां के पुण्य–
पापमां क्यांय चैतन्यनुं सुख नथी, सुख तो आत्मानो स्वभाव छे. अज्ञानी जीवे पोताना स्वभावने भूलीने
परमां सुखनी कल्पना करी छे, पण परमां सुख नथी. सुख शरीरमां नथी, सुख पैसामां नथी, स्वर्गमां के
ईन्द्रपदमां सुख नथी, तेमज जे भावथी स्वर्ग मळे ते भावमां पण सुख नथी. संयोग अने विकार वगरनो
आत्मानो चैतन्यस्वभाव छे तेमां ज सुख छे. अहो! चैतन्यस्वभावमां ज मारुं सुख छे–ए वात अनंतकाळथी
जीवे कोठे बेसाडी नथी. काने तो पडी पण कोठे न बेसी, तेथी बहारमां सुख कल्पीने, बहारमां सुख शोधे छे;
पण सुख तो अंतरमां छे. जगतमां उत्तममां उत्तम वस्तु आत्मा छे, आत्मा पोते आनंदस्वरूप छे, आवा
आत्माने ओळखवो ते ज सुखी थवानो रस्तो छे.
आत्मा अनादिनो छे, ते अत्यार सुधी क्यां रह्यो? –के जुदा जुदा शुभ–अशुभ भाव करीने संसारनी
चारगतिमां रखडयो. चैतन्यस्वभाव शुं छे ते अनादिकाळमां एक सेकंड पण जीव समज्यो नथी. देहदेवळमां
अकेके आत्मा चैतन्यसामर्थ्यथी भरपूर भगवान छे, पण तेने पोताना सामर्थ्यनी प्रतीत न आवतां, ‘पुण्य–
पाप कर्या तेटलो ज हुं’ एम ते माने छे. अहीं शास्त्रकार कहे छे के भाई! आत्मा कोण छे अने तेनुं वास्तविक
स्वरूप शुं छे ते हुं अहीं वर्णवीश. शा माटे? –के हुं आत्मानो अर्थी छुं तेथी ते शुद्धचिद्रूप आत्मानी प्राप्तिने माटे
हुं तेनुं कथन करुं छुं, जेने अंतरमां भवनो त्रास लाग्यो होय अने आत्मानी गरज थई होय एवा जीवोने माटे
अहीं आत्मानुं स्वरूप वर्णवे छे, तेमां मंगलाचरण तरीके शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माने नमस्कार कर्या छे. केवो छे
ते आत्मा?–के आनंद सहित छे, एटले तेनी ओळखाण थतां पोताने आनंदनो अनुभव थाय छे, अने
जगतमां ते उत्तम छे.
आवा चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्वने ज्यांसुधी जीव न जाणे त्यांसुधी तेना व्रत–तप वगेरे बधुं रणमां
पोक जेवुं व्यर्थ छे. जेम एकडा वगरना मींडानी कांई किंमत नथी तेम साची समजण वगर गमे तेटलुं करे
तोपण ते मींडा समान छे, –तेनाथी जरापण धर्म थतो नथी. चैतन्यनी ओळखाण वगरनुं बीजुं तो बधुं
अनंतवार कर्युं छे ते कांई अपूर्व नथी; अहो! जे चैतन्यस्वरूप समजीने संतो तेने पामी गया तेवुं मारुं
स्वरूप
शुं (अनुसंधान पाना नं. ६९ उपर)