: महा : २०१० : आत्मधर्म–१२४ : ६९ :
महा कल्याणकारी सम्यग्दर्शन थवानी रीत
[भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो]
तीर्थधाम सोनगढमां मानस्तंभ–प्रतिष्ठा–महोत्सव प्रसंगे,
वीर सं. २४७९, चैत्र सुद चोथना प्रवचनमांथी– (२)
जुओ, अहीं मानस्तंभनो महोत्सव चाले छे ने
महोत्सवमां सम्यग्दर्शननी अपूर्व वात आवी छे. मानस्तंभ ते
जिनेन्द्र भगवाननो वैभव छे, ए अपार वैभवने देखतां ज
भव्यजीवोने एम थाय छे के अहो! आ भगवाननो अपार
धर्मवैभव! आ सर्वज्ञ भगवानने परिपूर्ण आत्मवैभव प्रगटी
गयो छे. –आम सर्वज्ञ भगवाननुं बहुमान आवे छे; सर्वज्ञतानो
महिमा आवतां अल्पज्ञतानुं अभिमान रहेतुं नथी. अने, आ
सर्वज्ञ भगवानने जेवुं सामर्थ्य प्रगट्युं छे तेवुं सामर्थ्य प्रगट
थवानी ताकात मारामां पण छे–एम अंतरस्वभावनुं लक्ष थतां
अनादिनुं मिथ्यात्व टळीने अपूर्व सम्यक्त्वदशा प्रगटी जाय छे
अने ते ज खरो मंगळ–महोत्सव छे.
शुद्ध चैतन्यस्वभावनी प्रतीति अने अनुभव करे ते ‘हंस’
छे. जेम हंस पोतानी चांचना बळथी दूध अने पाणीने जुदा करी
नांखे छे तेम सम्यग्द्रष्टि जीव पोतानी शुद्धनयरूपी चांचना बळथी
कर्मने अने आत्माने भिन्न भिन्न जाणीने शुद्ध आत्माने अनुभवे
छे तेथी ते हंस छे.
सम्यग्दर्शन माटेनो आत्मबोध
मोक्षदशा प्रगट थया पहेलांं साधकदशामां धर्मी जीवनी द्रष्टि केवी होय तेनी आ वात चाले छे. पहेलांं तो
पोतानी बुद्धिथी शुद्धनय अनुसार आत्मानो बोध होवो जोईए. अहीं ‘पोतानी बुद्धि’ एम कहीने ज्ञानने
आत्मा तरफ वाळवानुं बताव्युं छे. जे बुद्धि अंतरमां वळीने आत्मा साथे अभेद थई ते ज पोतानी बुद्धि छे. ते
सिवाय पर तरफना वलणवाळा ज्ञाननो भले घणो उघाड होय तोपण ते सम्यग्दर्शननुं कारण नथी. ‘हुं
ज्ञानानंद छुं’ एम शुद्ध नयथी आत्मानो बोध करवो ते सम्यग्दर्शन छे.
जैनधर्मनुं रहस्य
अहो! ‘भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो’ एटले के भूतार्थ स्वभावनो आश्रय करनार
जीव सम्यग्द्रष्टि छे–आ टूंका सूत्रमां आचार्यदेवे जैनधर्मनुं रहस्य (अनुसंधान पाना नं. ७० उपर)
(पाना नं. ६८ थी चालु)
छे? ते वात समजवी ते अपूर्व छे. अहो! आ जगतमां आनंदनुं धाम अने उत्तम तत्त्व तो मारो चैतन्य
भगवान छे, मारो आत्मा ज जगतमां उत्तम अने आनंदनुं धाम छे. चैतन्यनो आनंद बहार नथी अने
चैतन्यस्वभाव सिवाय बीजुं कांई जगतमां ऊंचुं नथी. पुण्य–पापना भावमां के मोटा बंगला–पैसा वगेरे बाह्य
पदार्थोमां आनंद नथी तेमज ते कोई उत्तम नथी; ते तो बधुं अनंतवार मळी गयुं छे. चैतन्यस्वरूप आत्मानी
प्राप्ति पूर्वे अनंतकाळमां कदी करी नथी. जगतमां सर्वोत्कृष्ट उत्तमतत्त्व तो चैतन्यस्वरूप आत्मा छे ने ते
आनंदसहित छे; आवा शुद्ध चिद्रूप परमात्म तत्त्वने तेनी प्राप्ति अर्थे अहीं नमस्कार कर्या छे.