अवलंबन छे ज नहि’ आवा लक्षपूर्वक एटले के
स्वभावना उत्साहपूर्वक एकवार पण जे जीव आ वात
सांभळे ते भव्य जीव जरूर अल्पकाळमां मुक्ति पामे छे.
आ एम ने एम सांभळी लेवानी वात नथी पण
सांभळनार उपर निर्णय करवानी जवाबदारी छे.
भूतार्थ आत्मस्वभावती द्रष्टि होय. जेने आवी द्रष्टि तो थई नथी अने राग तथा भेदना
आश्रयथी धर्म थवानुं माने छे ते तो एकला अधर्मनुं ज पोषण करे छे –एवा जीवे धर्मनी कथा
(शुद्धआत्मानी वार्ता) खरेखर कदी सांभळी ज नथी पण बंधनी कथा ज सांभळी छे,
भगवाननी वाणी सांभळतो होय त्यारे पण खरेखर तो ते बंध कथा ज सांभळी रह्यो छे,
केमके तेनी रुचिनुं जोर बंधभाव उपर छे पण अबंध आत्मस्वभाव तरफ तेनी रुचिनुं जोर
नथी. भले समवसरणमां बेठो होय अने साक्षात् तीर्थंकर भगवाननी वाणी काने पडती होय,
परंतु ते वखते जे जीवनी मान्यतामां एम छे के ‘आवी सरस वाणी आवी तेने लीधे मने
ज्ञान थयुं, अथवा आ श्रवणना शुभरागथी मने ज्ञान थयुं’ तो ते जीव खरेखर भगवाननी
वाणी नथी सांभळतो, पण बंध कथा ज सांभळे छे; भगवाननी वाणीनो अभिप्राय ते
समज्यो ज नथी. अनंतवार समवसरणमां जईने अज्ञानीए शुं कर्युं? के बंध कथा ज सांभळी.
‘निमित्तथी मारुं ज्ञान थतुं नथी, रागथी पण मारुं ज्ञान थतुं नथी तेमज मारो ज्ञानस्वभाव
रागने करतो नथी, हुं ज्ञानस्वभाव छुं, ज्ञानस्वभावना अवलंबने ज मारुं ज्ञान थाय छे’
आवी ज्ञानस्वभावनी रुचि अने सन्मुखतापूर्वक जेणे एकवार पण शुद्धआत्मानी कथा ज्ञानी
पासेथी सांभळी ते जीव अल्पकाळमां मुक्ति पाम्या वगर रहे नहि. श्री पद्मनंदि मुनिराज कहे
छे के–
निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम्।।
मारा ज्ञायकतत्त्वनी वात छे, मारा ज्ञायकतत्त्वनी प्रतीत करवामां कोई रागनुं अवलंबन