प्राप्त कर्युं तेणे बधुं प्राप्त करी लीधुं. जगतमां प्राप्त करवा योग्य सर्वोत्तम वस्तु होय तो ते आ
चैतन्यरत्न ज छे. जेणे आ चैतन्यरत्नने प्राप्त न कर्युं–ज्ञानगम्य न कर्युं तेणे कांई प्राप्त कर्युं
नथी. पैसा वगेरे तो जड वस्तु छे, ते कांई आत्माने प्राप्त करवा लायक नथी; पैसा कांई
आत्मामां आवी जता नथी. पुण्यथी बहारमां पैसा वगेरेनो संयोग मळे, पण तेमां आत्मानुं
कांई हित नथी. पैसा तो जड वस्तु छे, तेनाथी भिन्न चैतन्यतत्त्व शुं छे ते ओळखीने जेणे तेनी
प्राप्ति करी तेणे बधुं प्राप्त करी लीधुं छे. चैतन्यतत्त्वथी उत्तम जगतमां बीजुं कांई नथी.
पापथी पार मारुं चैतन्य स्वरूप शुं छे तेनुं कदी ज्ञान कर्युं नथी. पूर्व प्रारब्धने लीधे धर्मीने पण
बहारमां लक्ष्मी वगेरेनो संयोग होय, पण त्यां ते जाणे छे के आ लक्ष्मी मारुं प्राप्य नथी, मारुं
प्राप्य (एटले प्राप्त करवायोग्य) तो एक चैतन्यतत्त्व ज छे. मारा शुद्ध चैतन्यतत्त्वथी बाह्य
जेटला भावो छे ते कोई मारुं स्वरूप नथी. नीचली दशामां धर्मीने पुण्य–पापनो राग थाय, पण
तेने धर्मी पोतानुं प्राप्य मानता नथी; धर्मी जाणे छे के मारे प्राप्त करवा योग्य जगतमां कांई
होय तो ते रागरहित मारुं चिदानंद तत्त्व ज छे. आम पोताना श्रद्धा–ज्ञानमां जेणे शुद्ध–
चिदानंद तत्त्वने प्राप्त कर्युं छे ते धर्मात्मा बीजुं कांई पण प्राप्त करवायोग्य मानता नथी.
मारे जाणवा योग्य–देखवायोग्य के प्राप्त करवा योग्य रह्युं नथी. अने जेणे पोताना
चैतन्यतत्त्वने जाण्युं नथी–देख्युं नथी–प्राप्त कर्युं नथी, तेनुं बधुं जाणपणुं व्यर्थ छे. अहो! पूर्वे
कदी नहि जाणेल एवा पोताना आत्मतत्त्वने जाणवुं ते ज अपूर्व कार्य छे. पुण्य अने तेनां फळ
जीवे पूर्वे अनंतवार प्राप्त कर्यां छे, तेमां कांई अपूर्वता नथी. पण पुण्यथी पार ज्ञानानंदतत्त्वने
जाणीने तेना अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव जीवे पूर्वे कदी प्राप्त कर्यो नथी तेथी ते अपूर्व छे.
धर्मी कहे छे के अहो! में मारां चैतन्यरत्नने ओळखीने तेनी प्राप्ति करी लीधी छे, तो हवे
जगतमां मारे जाणवा योग्य शुं रह्युं? ने प्राप्त करवा योग्य बीजुं शुं रह्युं? कांई ज न रह्युं.