ज्ञानने अंतर्मुख करीने स्वज्ञेयने पकडवुं ते ज करवा जेवुं छे; ए कार्य जेणे करी लीधुं तेने हवे
बीजुं कांई करवानुं रह्युं नथी. अंर्तस्वभावनी द्रष्टिमां धर्मी कृतकृत्य छे. आवी द्रष्टि प्रगट्या
पछी धर्मीने राग पण थाय, पण तेने ते पोतानुं कार्य मानतो नथी; राग अने ज्ञान वच्चे तेने
भेद पडी गयो छे, एटले ते जाणे छे के मारुं कार्य तो स्वतत्त्वने जाणवुं देखवुं ने तेमां एकाग्रता
वडे तेनी प्राप्ति करवी ते ज छे. मारा चैतन्यतत्त्वथी भिन्न जे भावो छे तेनो हुं जाणनार छुं ने
ते मारुं ज्ञेय छे, पण ते मारुं कार्य नथी; मारा स्वज्ञेय साथे ज्ञाननी एकता थई ते ज मारुं कार्य
छे.
चैतन्यतत्त्व वाणी अने विकल्पथी पार छे, तेनुं भान थतां धर्मीने वाणीनुं स्वामीपणुं ऊडी गयुं
छे. हजी वाणीनो संयोग भले हो, पण धर्मी जाणे छे के आ वाणी मारा चैतन्यथी भिन्न छे, हुं
वाणीनो कर्ता नथी ने वाणी द्वारा मारो आत्मा लक्षमां आवतो नथी; हुं तो ज्ञान छुं ने
अतीन्द्रियज्ञानथी ज मारो आत्मा लक्षमां आवे तेवो छे. में मारा ज्ञानने अंतरमां वाळीने
शुद्धआत्माने ज मारुं वाच्य बनाव्युं छे, तेथी बीजुं कोई वाच्य मारे रह्युं नथी. अज्ञानी तो
वाणीनुं अभिमान करे छे, मारी ईच्छाने लीधे वाणी बोलाय छे अथवा तो वाणीना
अवलंबनथी मने लाभ छे एम मानीने ते परमां अटके छे पण चैतन्यने पोतानुं वच्य
बनावतो नथी. भाई! वाणी तो जड छे, ते कांई तारी ईच्छानुं कार्य नथी. मरवा टाणे
बोलवानी ईच्छा होवा छतां घणा बोली शकता नथी, केमके वाणी नीकळवी के न नीकळवी ते
चैतन्यनुं कार्य नथी. वाणी आत्माथी जुदी छे; आत्मा तो ज्ञानस्वभावी तत्त्व छे, ज्ञान ज तेनो
धर्म छे. आवा ज्ञानतत्त्वने जेणे ज्ञानमां पकडयुं तेने हवे जगतमां बीजुं कांई वाच्य रह्युं नथी.
करी रह्यो छे, आत्मानी ओळखाण विना ते भवभ्रमणनो अंत आवे तेम नथी. अहीं तो
भवभ्रमणनो अंत केम आवे तेनी वात छे. जगतमां जाणवा जेवुं होय तो आ चैतन्यतत्त्व ज
जाणवा जेवुं छे, के जेने जाणवाथी भवभ्रमणनो अंत आवे ने मुक्ति थाय. एक चैतन्यतत्त्वने
जेणे जाण्युं तेणे जाणवा योग्य बधुं जाणी लीधुं. मरण समये अमुक वात लक्षमां होय ने
कहेवानी ईच्छा थाय पण वाचा चालती नथी; जुओ, त्यां “वाचा” बंध थाय छे पण कांई
“ज्ञान” बंध थाय छे? वाणी बंध होवा छतां ज्ञाननुं कार्य तो चालु ज रहे छे; माटे वाचा
बोलवी ते कांई आत्मानुं कार्य नथी, आत्मा तो ज्ञानस्वरूप छे. आवा ज्ञानस्वरूप आत्मानी
ओळखाण करवी तेनुं नाम धर्म छे, ए ज करवा जेवुं छे. आ मनुष्यभव पामीने पण जेणे
पोताना आत्माने न ओळख्यो तेणे खरेखर कांई कर्युं नथी.