आ लोकोत्तर नीति छे. अनादिथी आत्मा अनीति करी रह्यो छे; –कई रीते? के पोतानुं चैतन्यस्वरूप छे तेने
भूलीने, शरीर ते हुं–एम परने पोतानुं माने छे. शरीर वगेरे पारकी वस्तु पोतानी न होवा छतां अज्ञानथी
तेने पोतानी माने छे ते मोटी अनीति छे. ने ते अनीतिना फळमां संसारनी जेल छे. हिंसा–जूठुं–चोरी वगेरेना
पापभाव ते लौकिक अनीति छे, ने तेनो त्याग करीने शुभभाव करे तो ते लौकिक नीति छे, पण धर्मनी नीति
तो जुदी ज चीज छे. पोतानुं चैतन्यस्वरूप जेम छे तेम मानवुं ने परना एक अंशने पण पोतानो न मानवो–
आवुं भेदज्ञान करवुं ते धर्मनी अपूर्व नीति छे.
जे झाझुं मांगे ते मोटो मांगण,
जे थोडुं मांगे ते नानो मांगण;
जे कंई न मांगे ते मोटो बादशाह.
आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप छे, तेमां ज तारुं सुख छे; पैसामां के शरीरमां तो तारुं सुख नथी, ने अंतरमां रागादिनी
वृत्ति ऊठे ते विकार छे तेमां पण तारुं सुख नथी. अनादिथी चार गतिमां अनंत अवतार थया पण आ वात
जीव समज्यो नथी. साची समजण वगर अनंतकाळथी अवतार करतो आवे छे. एक–बे नहि, लाख–करोड नहि
पण अनंत अनंत अवतार जीवे कर्या छे; तेमां कोई वार दया–दान वगेरेना शुभपरिणामथी स्वर्गमां पण गयो,
ने तीव्र हिंसा वगेरेना पापपरिणाम करीने नरकमां गयो, तेमज तिर्यंच अने मनुष्यना अवतार पण अनंतवार
कर्या. नरकनुं पण नीचे स्थान छे. ते कल्पना नथी पण शाश्वत छे. एक खून करवाना परिणामवाळाने अहीं
एक वार फांसी अपाय छे, पण लाखो–करोडो जीवोनी हिंसाना परिणाम करे तेनुं फळ भोगववानुं स्थान अहीं
नथी; ते स्थान नरकमां छे, त्यां अनंती प्रतिकूळता छे. आवा नरकना तेमज स्वर्गना अनंत अवतार जीव करी
चूक्यो; पण “हुं चैतन्यस्वरूप वस्तु छुं” ते वातनी समजण कदी करी नथी. “परमां सुख ने मारामां सुख नहि”
एवी ऊंधी मान्यताथी जीव संसारमां रखडे छे, ते संसारपरिभ्रमण केम छूटे तेनी आ वात छे.
संयोगी चीज जीव साथे कायम रहे नहि. अंदर शुभ–अशुभ लागणी थाय छे ते पण कायमी चीज नथी; शुभ
पलटीने अशुभ, ने अशुभ पलटीने पाछी शुभ लागणी थाय छे, ते जीवनुं कायमी स्वरूप नथी. अंतरमां
आत्मानी चैतन्यसत्ता कायम रहेनार छे, ते चैतन्यसत्ता आनंदथी भरपूर छे, पण अनादिथी तेनो महिमा के
प्रतीत करी नथी. जो चैतन्यस्वभावनी प्रतीत करे तो आ संसारपरिभ्रमण रहे नहि. आ आंख–कान देखाय छे
ते तो जड छे, आंख–कान मोळा पडे, शरीरना अवयवो काम न करे ते वखते पण अंतरमां हुं ज्ञानानंद स्वरूप,
देहथी भिन्न छुं एवुं भान करीने तेमां एकाग्र थवुं ते मोक्षनो मार्ग छे, शरीरनी क्रियामां के ईन्द्रियोमां आत्मानी
मुक्तिनो मार्ग नथी. शुद्ध चैतन्यस्वरूप