Atmadharma magazine - Ank 125
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: ८८ : आत्मधर्म–१२५ : फागण : २०१० :
ज्ञानानंद स्वभावने जाणतां तेमांथी ज सुख प्रगटे छे. पोतामां ज सुख छे ते प्रगटे छे, पण परमांथी सुख नथी
आवतुं. आत्मा वस्तु आनंद–स्वरूप छे, वस्तु पोते स्वभावथी दुःखरूप न होय, पण भूलने लीधे दुःख छे.
जेम चणो काचो होय तो तूरो लागे छे ने वावो तो ते ऊगे छे; तेम जीवने अज्ञानभावथी दुःखनो
अनुभव थाय ने जन्म–मरण करे छे. पण चणाने सेकतां तेमां मीठाश प्रगटे छे ने वाववाथी ते ऊगतो
नथी; तेम आत्माना स्वभावनुं भान करीने तेमां एकाग्र थतां आनंदनो अनुभव थाय छे ने जन्म–मरण
थता नथी.
भगवान आत्मा शरीरादिनी क्रियाथी भिन्न चैतन्यपिंड छे; तेमां जे राग–द्वेषनी लागणी थाय छे ते
उपाधिभाव छे, ते उपाधि रहित निरुपाधि चैतन्यस्वभावने ओळखवो ने तेमां एकाग्र थवुं ते धर्मनी नीति छे.
आ लोकोत्तर नीति छे. अनादिथी आत्मा अनीति करी रह्यो छे; –कई रीते? के पोतानुं चैतन्यस्वरूप छे तेने
भूलीने, शरीर ते हुं–एम परने पोतानुं माने छे. शरीर वगेरे पारकी वस्तु पोतानी न होवा छतां अज्ञानथी
तेने पोतानी माने छे ते मोटी अनीति छे. ने ते अनीतिना फळमां संसारनी जेल छे. हिंसा–जूठुं–चोरी वगेरेना
पापभाव ते लौकिक अनीति छे, ने तेनो त्याग करीने शुभभाव करे तो ते लौकिक नीति छे, पण धर्मनी नीति
तो जुदी ज चीज छे. पोतानुं चैतन्यस्वरूप जेम छे तेम मानवुं ने परना एक अंशने पण पोतानो न मानवो–
आवुं भेदज्ञान करवुं ते धर्मनी अपूर्व नीति छे.
जुओ, मोटो राजा हो के रंक हो पण आ वस्तु समज्ये ज सुख छे. चैतन्यतत्त्वनी समजण वगर बधुं
थोथां छे. चैतन्यने भूलीने पैसा वगेरेमां जे सुख माने छे ते मोटो राजा होय तोपण खरेखर मांगण छे. –
“जे मांगे ते मांगण, ने
जे न मांगे ते राजा;
जे झाझुं मांगे ते मोटो मांगण,
जे थोडुं मांगे ते नानो मांगण;
जे कंई न मांगे ते मोटो बादशाह.
चैतन्यस्वभावने चूकीने, परमां मारुं सुख छे एम जे माने छे ते बधाय मांगण छे. भले राजा होय, पण
“मारे पर चीज वगर न चाले” एम जे माने छे ते परमार्थे भिखारी छे. अहीं तो कहे छे के भाई! तारो
आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप छे, तेमां ज तारुं सुख छे; पैसामां के शरीरमां तो तारुं सुख नथी, ने अंतरमां रागादिनी
वृत्ति ऊठे ते विकार छे तेमां पण तारुं सुख नथी. अनादिथी चार गतिमां अनंत अवतार थया पण आ वात
जीव समज्यो नथी. साची समजण वगर अनंतकाळथी अवतार करतो आवे छे. एक–बे नहि, लाख–करोड नहि
पण अनंत अनंत अवतार जीवे कर्या छे; तेमां कोई वार दया–दान वगेरेना शुभपरिणामथी स्वर्गमां पण गयो,
ने तीव्र हिंसा वगेरेना पापपरिणाम करीने नरकमां गयो, तेमज तिर्यंच अने मनुष्यना अवतार पण अनंतवार
कर्या. नरकनुं पण नीचे स्थान छे. ते कल्पना नथी पण शाश्वत छे. एक खून करवाना परिणामवाळाने अहीं
एक वार फांसी अपाय छे, पण लाखो–करोडो जीवोनी हिंसाना परिणाम करे तेनुं फळ भोगववानुं स्थान अहीं
नथी; ते स्थान नरकमां छे, त्यां अनंती प्रतिकूळता छे. आवा नरकना तेमज स्वर्गना अनंत अवतार जीव करी
चूक्यो; पण “हुं चैतन्यस्वरूप वस्तु छुं” ते वातनी समजण कदी करी नथी. “परमां सुख ने मारामां सुख नहि”
एवी ऊंधी मान्यताथी जीव संसारमां रखडे छे, ते संसारपरिभ्रमण केम छूटे तेनी आ वात छे.
जुओ भाई! आ मनुष्यपणुं मळ्‌युं छे ते तो पचीस पचास वर्ष रहेशे, पछी तो शरीर छूटी जशे ने
आत्मा बीजे चाल्यो जशे. शरीर तो संयोगी चीज छे, तेनो संयोग नवो थयो छे, ते अल्पकाळ रहीने छूटी जशे.
संयोगी चीज जीव साथे कायम रहे नहि. अंदर शुभ–अशुभ लागणी थाय छे ते पण कायमी चीज नथी; शुभ
पलटीने अशुभ, ने अशुभ पलटीने पाछी शुभ लागणी थाय छे, ते जीवनुं कायमी स्वरूप नथी. अंतरमां
आत्मानी चैतन्यसत्ता कायम रहेनार छे, ते चैतन्यसत्ता आनंदथी भरपूर छे, पण अनादिथी तेनो महिमा के
प्रतीत करी नथी. जो चैतन्यस्वभावनी प्रतीत करे तो आ संसारपरिभ्रमण रहे नहि. आ आंख–कान देखाय छे
ते तो जड छे, आंख–कान मोळा पडे, शरीरना अवयवो काम न करे ते वखते पण अंतरमां हुं ज्ञानानंद स्वरूप,
देहथी भिन्न छुं एवुं भान करीने तेमां एकाग्र थवुं ते मोक्षनो मार्ग छे, शरीरनी क्रियामां के ईन्द्रियोमां आत्मानी
मुक्तिनो मार्ग नथी. शुद्ध चैतन्यस्वरूप