Atmadharma magazine - Ank 125
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २०१० : आत्मधर्म–१२५ : ८९ :
आत्मानुं ज्ञान करवुं ते ज आ जगतमां निर्दोष कार्य छे. जीवे पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनी श्रद्धा करवानो कदी
प्रयत्न कर्यो नथी; शरीरनी क्रियाने पोतानी मानवी ने रागथी धर्म मानवो तेमां मिथ्यात्वनो मोटो दोष छे
–अपराध छे, तेनाथी संसारभ्रमण थाय छे; ने देहथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानी ओळखाण–प्रतीत–
अनुभव करवो ते निर्दोष कार्य छे, ते मोक्षनुं कारण छे; माटे आ मनुष्यभवमां सत्समागमे आवा आत्मानी
समजणनो उपाय करवो जोईए. बहारनुं तो पूर्वनां पुण्य–पाप अनुसार बने छे, पैसा आववा के जवा ते बधुं
पूर्वनां पुण्य–पाप अनुसार छे तेमां जीवनुं डहापण काम आवतुं नथी; त्यां तो जीव मफतनो अभिमान करे छे,
पण शरीरथी जुदो तेमज अंदरनी शुभ–अशुभ लागणीथी पण पार एवो मारो ज्ञानानंदस्वभाव शुं छे ते
जाणवानी पूर्वे कदी दरकार करी नथी. चैतन्यतत्वना भान वगर दयादिना भाव करीने स्वर्गमां अनंतवार
रखड्यो, हिंसादिना तीव्र–पापभाव करीने नरकमां पण अनंतवार रखड्यो, तीव्र दंभ–माया तथा वक्रताना
परिणाम करीने तिर्यंचमां रखड्यो ने कंईक मध्यम परिणामथी मनुष्य पण अनंतवार थयो, पण
चैतन्यस्वभावनुं भान पूर्वे एक सेकंड पण कर्युं नथी. जेम पर्वत उपर वीजळी पडे ने तेना कटका थाय ते फरीने
रेण दीधे संधाय नहि, तेम जो एकवार पण देहथी भिन्न चिदानंदस्वभावनुं भेदज्ञान करे तो फरीने संसारमां
परिभ्रमण थाय नहि. भाई! तारो भाव परमां तो काम आवतो नथी, माटे परना कर्तृत्वनुं नकामुं अभिमान
छोड. तने परने बचाववानो भाव थाय, पण तारा भावने लीधे पर जीव कांई बची जतो नथी, तारो
बचाववानो भाव होवा छतां पर जीवनुं आयुष्य न होय तो ते मरी जाय छे, अने तेनुं आयुष्य होय तो ते
बचे छे; माटे पर जीवनी क्रिया तो तारे आधीन नथी. जीवनी ईच्छा न होवा छतां वृद्धावस्था थतां माथाना
वाळ काळामांथी धोळा थई जाय छे. आ शरीर उपर पण तारी सत्ता नथी, शरीर ताराथी भिन्न चीज छे.
शरीरथी भिन्न हुं ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा छुं एवी ओळखाण करवी–रुचि करवी ने तेमां एकाग्रता करवी ते धर्म
छे, अने ते ज संसारथी छूटवानो उपाय छे. आ मनुष्यभव पामीने सत्समागमे ज्ञानानंद स्वरूप आत्मानी
ओळखाण करीने तेनुं ध्यान करवुं. ते ज आ जगतमां उत्तम अने निर्दोष कार्य छे. चिदानंद स्वरूप आत्मानुं
रागरहित स्वसंवेदन थाय तेने ज भगवान निर्दोष चीज कहे छे, ए सिवाय अज्ञानभावे जे कांई करे ते बधुं
सदोष छे.
जुओ, चैतन्य वस्तुमां आनंद भर्यो छे, ते आनंद आंख वगेरे ईन्द्रियोथी न देखाय पण अतीन्द्रियज्ञान
वडे तेनो निर्णय थाय छे. जेम दीवासळीना नाना टोपकामां भडको थवानी ताकात छे ते आंख वगेरे ईन्द्रियोथी
नथी देखाती पण ज्ञानद्वारा नक्की थाय छे; तेम चैतन्यमूर्ति आत्मामां सर्वज्ञतानुं तेज प्रगटवानी ताकात छे,
तेनी प्रतीत करीने तेमां एकाग्र थतां सर्वज्ञता अंदरथी ज प्रगटे छे. आपणे ‘नमो अरिहंताणं अने नमो
सिद्धाणं’ कहीए छीए. ते अरिहंत अने सिद्धभगवंतो क्यांथी थया? अनंता सर्वज्ञ भगवंतो थया ते बधाय
पोतानी चैतन्य शक्तिमांथी ज केळवज्ञान प्रगट करीने सर्वज्ञ थया छे, कांई सर्वज्ञता बहारथी नथी आवी. अने
तेनुं साधन पण बहार नथी. अंतरनी चैतन्यशक्तिनी प्रतीत करीने तेना ध्यानरूपी साधन वडे ज सर्वज्ञता थई
छे, कोई बहारना साधनथी के रागना साधनथी सर्वज्ञता थई नथी. जो शरीरादि बहारना साधनथी के रागना
साधनथी सर्वज्ञता थई होय तो, तो ते साधन छूटी जतां सर्वज्ञता पण चाली जाय! पण अंतरनी
चैतन्यशक्तिना अवलंबनथी ज सर्वज्ञता प्रगटे छे. दरेक आत्मामां सर्वज्ञ थवानी ताकात पडी छे, अंतरनी
चैतन्यशक्तिना अवलंबने ज संसारनो नाश थईने मोक्षदशा प्रगटे छे. चैतन्यशक्तिना अविश्वासने लीधे ज
जीवने अत्यार सुधी संसारपरिभ्रमण थयुं छे. अंतरना चैतन्यस्वभावनी ओळखाण–प्रतीत अने विश्वास
करवो ते ज आ जगतमां उत्तम अने निर्दोष कर्तव्य छे.
(बाबरा गाममां परमपूज्य गुरुदेवनुं प्रवचन:
सं. २०१०, पोष वद ९)