अल्पज्ञता अने विकार होवा छतां द्रव्यनी शक्तिमां तो परिपूर्ण केवळज्ञाननी ताकात सदाय पडी छे; आत्माना
स्वभावनी आवी ताकातनो विश्वास करवो ते अपूर्व धर्म छे. पोताना ज्ञानस्वभावने भूलीने, अनादिथी
देहादिनी क्रियाने पोतानी मानीने, तथा पुण्य–पापने ज पोतानुं स्वरूप मानीने जीव संसारमां रखडे छे. अहो!
मारो आत्मा ज ज्ञानानंदस्वरूपे भगवान छे, भगवान थया तेमना आत्मामां जेटलुं सामर्थ्य छे तेटलुं ज
सामर्थ्य मारा आत्मामां पण छे, आवी ओळखाण पूर्वे कदी जीवे करी नथी अने बहारथी ज धर्म मानी लीधो
छे, बहु तो शुभभाव करीने तेने धर्म मान्यो, पण तेथी भवभ्रमण अटक्युं नहि. तेथी आत्मानुं वास्तविक
स्वरूप शुं छे, के जे समजवाथी भवभ्रमणनो अंत आवे, तेनी आ वात चाले छे.
कर्म तो जड छे, ते आत्मतत्त्वथी भिन्न छे, अने तेनी क्रिया पण आत्माथी भिन्न छे. अनादिथी भिन्न
चैतन्यतत्त्वने चूकीने, शरीर ते ज हुं अने शरीर ठीक होय तो मने धर्म थाय–एवी ऊंधी मान्यता जीवे करी छे,
तेथी तेने देहथी भिन्नपणुं भासतुं नथी. देहथी भिन्न अंतरना चैतन्यतत्त्वने ओळखवानी आ वात छे. आ
सिवाय पुण्यनी शुभ लागणी अंदरमां थाय ते पण विकार छे, ते पुण्य पण अनंतवार करी चूक्यो छे, तेमां कांई
धर्म नथी; अंतरमां पुण्यपापथी पार चिदानंद आत्मानी ओळखाण करीने सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ते अपूर्व छे
अने तेमां धर्म छे. पुण्यथी स्वर्ग मळे पण तेमा कांई आत्मानी शांति न मळे, तेनाथी भवभ्रमणनो छेडो न
आवे. भाई! शांति तो तारा आत्मानी अंतरनी चीज छे, ते कोई बहारनी चीजमांथी के पुण्यमांथी नथी
आवती, पण अंर्तस्वभावमां एकाग्रताथी ज शांतिनो अनुभव थाय छे. ते माटे आत्मानो वास्तविक स्वभाव
शुं छे तेनी पहेलांं ओळखाण करवी जोईए.
ज्ञान पूर्वे एक क्षण पण जीवे कर्युं नथी. मिथ्याद्रष्टिपणे शुभभाव करीने जीव नवमी ग्रैवेयक सुधीनो देव थयो,
नवमी ग्रैवेयक उपर पांच अनुत्तर विमान छे त्यां तो सम्यग्द्रष्टि जीवो ज ऊपजे छे. अहीं तो एम कहेवुं छे के
भाई! आत्माना भान विना पुण्य करीने स्वर्गमां पण तुं अनंतवार गयो, छतां तारुं भवभ्रमण न मटयुं. माटे
तुं समज के पुण्य करतां धर्म ते जुदी चीज छे.
समयसारमां पुण्यपरिणामने स्थूळ कह्या छे अने चैतन्यस्वभावने सूक्ष्म कह्यो छे त्यां जुदी वात छे; अहीं तो
आत्मानुं अचिंत्य ज्ञान–सामर्थ्य बताववा आत्माने स्थूळ कह्यो छे, अने ते ईन्द्रियगम्य नथी ते अपेक्षाए तेने
ज सूक्ष्म कह्यो छे. जुओ, गिरनारजी उपर चड्या त्यारे दूरदूरनुं केटलुं बधुं देखातुं हतुं! गिरनार उपरथी आखुं
जुनागढ नानुं लागतुं हतुं; ज्ञान तो कांई एटलुं पहोळुं थयुं न हतुं, साडात्रण हाथ प्रमाण ज्ञानमां बधुं जणाई
जतुं हतुं; आ रीते ज्ञानमां एवुं महान सामर्थ्य छे के समस्त लोकालोक एक क्षणमां तेमां जणाई जाय छे. आवा
महान ज्ञानसामर्थ्यनी प्रतीत करवी ते पहेलो धर्म छे. आत्माना ज्ञानस्वभावनी प्रतीत वगर दया–दान
वगेरेना शुभभाव करे ते कांई धर्मनो प्रकार नथी, ते तो पुण्य छे–आस्रव छे–संसार छे; धर्म तो संवर–
निर्जरातत्त्व छे ते मोक्षनुं कारण छे, अने पुण्य ते आस्रवतत्त्व छे ते बंधनुं कारण छे, चैतन्यतत्त्वना ज्ञान वगर
जिनमंदिर वगेरे बांधवामां शुभभावथी करोडो–अबजो रूा. खर्ची नांखे तोपण तेमां धर्म नथी, मात्र पुण्य–बंध
छे. अरे, मोटा अबजोनी पेदाशवाळा राजपाट छोडीने द्रव्यलिंगी जैन साधु थयो ने घणी उग्र पुण्यक्रिया करीने
शुभभावथी स्वर्गमां गयो छतां धर्मनो अंश पण न थयो; केमके ‘हुं तो अनंत ज्ञानशक्तिनो धणी छुं, देह के
देहनी क्रिया मारी नथी, पुण्यनो भाव पण मारुं खरुं स्वरूप नथी’ आवी समजण कर्या वगर धर्म थतो नथी.
ज्यां आत्मानुं भान थाय त्यां धर्मी जीव जाणे छे के हुं तो सदाय ज्ञानस्वरूप छुं, जे पापना के