Atmadharma magazine - Ank 125
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 9 of 21

background image
: ९२ : आत्मधर्म–१२५ : फागण : २०१० :
पुण्यना भाव थाय छे ते मारा ज्ञानथी जुदा छे. अज्ञानीने पोताना चैतन्यनी ताकातनो भरोसो नथी, ते पुण्य–
पाप जेटलो ज पोताने माने छे ने देहनी क्रियानुं अभिमान करीने संसारमां रखडे छे. जुओ, श्रेणिक राजाने
देहथी भिन्न चिदानंदमूर्ति आत्मानुं भान हतुं, तेमने व्रत–तप के त्याग न हतो परंतु अंतरमां आत्मानुं भान
हतुं; हजी राजपाटमां हता अने अनेक राणीओ हती छतां एकावतारी थया ने आवती चोवीसीमां आ
भरतक्षेत्रे त्रिलोकनाथ तीर्थंकर थशे, महावीर परमात्मा थया तेवा ज त्रणलोकना नाथ तीर्थंकर थशे. ए कोनो
प्रताप? अंतरमां चिदानंदस्वभावनुं भान वर्ततुं हतुं ते सम्यग्दर्शनना प्रतापे तेओ आवता भवमां तीर्थंकर
थईने मोक्ष जशे. अंतरमां रागरहित ज्ञानस्वभावनी ताकात केवी छे तेनी ओळखाण करे तो अल्पकाळमां मोक्ष
थया विना रहे नहि. माटे सत्समागमे आत्मानी ओळखाणनो उपाय करवो ते धर्मनी रीत छे.
आत्मा देहथी भिन्न स्वतंत्र तत्त्व छे. शरीरनी बाल, युवान ने वृद्ध एवी त्रणे अवस्था ज्ञानमां एक
साथे जणाय, पण कांई ते त्रणे अवस्था एक साथे भेगी करी शकाती नथी. शरीरमां पूर्वे बाल अने युवान
अवस्था थई ने वीती गई, ते अत्यारे ज्ञानमां जणाय खरी, पण ते वीती गयेली अवस्था फरीने लावी शकाती
नथी; माटे आत्मानो जाणवानो स्वभाव छे, पण शरीरनी अवस्थाने करी शके एवो तेनो स्वभाव नथी.
बालपणुं, युवानपणुं ने वृद्धपणुं ए तो शरीरनी दशा छे, आत्मा तेनाथी जुदो रहीने ते त्रणेनो जाणनार छे.
आत्मा पोताना ज्ञानमां एम याद करे के :
अरेरे! बालपणुं रमतमां खोयुं,
युवानीमां स्त्रीमां मोह्यो,
ने वृद्धावस्था देखीने रोयो...
ए प्रमाणे त्रणे दशानुं आत्मा ज्ञान करे छे, पूर्वना पुण्य–पापने पण ते जाणे छे के में पूर्वे आवा प्रकारना भावो
कर्या, पण त्यां ज्ञान साथे पूर्वना विकारी भावो आवी जता नथी, केमके ज्ञान तो आत्मानो स्वभाव छे पण
विकार आत्मानो स्वभाव नथी. पूर्वना पापने जाणतां तेनुं ज्ञान अत्यारे थाय छे, पण ज्ञान भेगां ते पाप कांई
अत्यारे आवी जता नथी. “अरेरे! हुं तो चैतन्यतत्त्व, पुण्य–पाप मारुं स्वरूप नहि, पण में मारा स्वरूपने
भूलीने पूर्वे तीव्र क्रोध–मान–कपटना भावो कर्यां ने हुं संसारमां रखडयो” आ प्रमाणे पूर्वना पापनुं ज्ञान कर्युं,
त्यां वर्तमानमां तेनुं ज्ञान थयुं पण तेवा पापना भाव न थया, माटे पापना भावथी ज्ञान जुदुं छे, अने ए ज
प्रमाणे पुण्यना भावथी पण ज्ञान जुदुं छे. एक क्षणे पुण्यना भाव थाय ने बीजी क्षणे ते पलटी जाय छे, ते
परिणाम बीजी क्षणे रहेता नथी पण तेनुं ज्ञान रही जाय छे, ते ज्ञानस्वरूप आत्मा छे. आवा ज्ञानतत्त्वनी
ओळखाण करवी ते अपूर्व धर्म छे.
जुओ, धर्म अपूर्व चीज छे. अपूर्व एटले शुं? पूर्वे अनंतकाळमां कदी एक क्षण पण जे नथी कर्युं ते
अपूर्व छे. बहारनी मोटी मोटी पदवी अनंतवार मळी गई, पुण्य अनंतवार कर्यां, पण ते कांई अपूर्व नथी.
आत्मानी ओळखाण पूर्वे कदी करी नथी तेथी ते ज अपूर्व छे. आत्मानी ओळखाण थतां अंतरमां चैतन्यना
सिद्धभगवान जेवा अतीन्द्रिय आनंदनो अपूर्व अनुभव थाय तेनुं नाम धर्म छे. आ शरीर–मन–लक्ष्मी वगेरे
अजीव तत्त्वो छे, तेनो अनुभव जीवमां नथी. अज्ञानथी जीव एम माने छे के हुं परनो भोगवटो करुं छुं, परंतु
ते अज्ञानी पण परने तो भोगवतो नथी, फकत अंदरमां हर्ष–शोकनी विकारी कल्पना करीने ते कल्पनानो
भोगवटो करे छे; पण चैतन्यतत्त्व तो ते पुण्य–पापना भोगवटाथी पण पार छे तेनी अज्ञानीने खबर नथी.
धर्मात्मा जाणे छे के हुं संयोगथी जुदो ने पुण्य–पापनी लागणीओथी पण जुदो चैतन्यस्वभावरूप छुं, आवा
भानमां धर्मी जीव अंतर्मुख वलणथी पोताना ज्ञान–आनंद स्वभावने ज भोगवे छे. अहो! ज्यां आत्मानुं
भान थयुं त्यां धमी जीवने आत्मामांथी भणकार आवी जाय छे के मारा चिदानंद स्वभावना आश्रये हवे
अल्पकाळमां मारा जन्म–मरणनो अंत आवी जशे ने हुं केवळज्ञान प्रगट करीने सिद्धपद पामीश.
जुओ
आवुं भान अंतरमां प्रगट करवुं ते धर्मनी शरूआत छे.
आत्मानुं स्वरूप तो जाणवानुं छे. पूर्वे चालीस वर्ष पहेलांं आ वंथलीगाममां अमुक रस्ते आव्या हता,
एम चालीस वर्ष पहेलांंनुं पण अत्यारे ज्ञानमां जणाय छे; ए ज प्रमाणे पूर्वे अनंत भवो जीव करी चूक्यो तेने
पण वर्तमानमां प्रत्यक्ष जाणे एवी ज्ञाननी ताकात छे.
(अनुसंधान पाना नं. ९३ उपर)