पूर्वना पुण्यना फळरूपे आ मनुष्यदेह, पंचेन्द्रियनी पूर्णता, उत्तम कुळ अने साचा देव–गुरु–धर्मनो योग प्राप्त
थयो छे, हवे अत्यारे पुण्य अने पुण्यना फळनी रुचि छोडीने, शुद्ध चैतन्यतत्त्वनी द्रष्टि करे तो अपूर्व आत्मलाभ
पामे अने भवनो अंत थईने शाश्वत मोक्षनी प्राप्ति थाय. जे जीव चैतन्यतत्त्वनो अनादर करीने पुण्यनी ने
संयोगनी मीठाश करे छे तेने मिथ्यात्वना जोरथी पापवासनानी पुष्टि थईने अनंतकाळ निगोदादिमां परिभ्रमण
थाय छे.
पलटीने अशुभ थई जशे. पुण्य–पापनी लागणी रहित ज्ञानानंद स्वरूप छे ते ध्रुव रहे छे, एवा ध्रुव चिदानंद
स्वरूप आत्मानी द्रष्टि करवी ते धर्म छे.
होय पण अंतरमां धर्मीनी द्रष्टि पलटी गई होय छे. स्वर्गनां ईन्द्रने ईन्द्रपदना वैभवनो संयोग होय छतां
अंतरमां भान छे के हुं संयोगथी भिन्न ज्ञानानंद स्वरूप छुं. भाई! आवो मनुष्यदेह मळ्यो तेमां आत्मानुं
वास्तविक स्वरूप शुं छे ते वात लक्षमां तो ले. जेम दोरा वगरनी सोय खोवाई जाय ते हाथ न आवे पण जो
दोरो परोव्यो होय तो खोवाय नहि; तेम आ मनुष्यदेह पामीने सत्समागमे सूत्र एटले के सम्यग्ज्ञान रूपी दोरो
जो आत्मामां परोवी ल्ये तो आत्मा चोरासीना अवतारमां खोवाय नहि, अने आत्माना लक्ष वगर जो जीवन
पूरुं करे तो संसारनी चार गतिमां क्यांय रझळशे. माटे हे भाई! आत्मानी आ वात सांभळीने तेनी रुचि तो
कर, अरे! हा तो पाड. ‘हा’ पाडतां पाडतां तेवी हालत थई जशे. भगवान! आ वात तें कदी लक्षमां लीधी नथी.
जेम पारसमणिना संसर्गथी लोढुं सोनुं थई जाय, पण जे लोढामां तेवी लायकात होय ते ज सोनुं थाय, काटवाळुं
होय तो ते सोनुं न थाय, तेम सत्समागमे यथार्थ श्रवण–मनन करे तो पामरता टळीने यथार्थ ज्ञान थाय, पण
जो अंतरमां पुण्य–पापनी रुचि रूपी काट लाग्यो होय तो तेने लाभ न थाय.
सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने चक्रवर्ती राजनो संयोग पण होय, परंतु अंतरनी द्रष्टि चिदानंद स्वभावमां पडी छे,
अंतरद्रष्टिमां चिदानंद स्वभाव सिवाय बीजा कोईनो आदर नथी. सम्यग्दर्शन ते धर्मनुं पहेलुं सोपान छे.
अष्टपाहुड शास्त्रमां भगवान कुंदकुंदाचार्य देव कहे छे के
छे; तेने बदले पुण्य ते धर्मनुं सोपान छे एम अज्ञानी माने छे. भाई! आत्माना ऊर्ध्वस्वभावनी श्रेणीए
चडवानुं एटले के मुक्तिनुं पहेलुं सोपान तो सम्यग्दर्शन ज छे. पुण्यनी रुचि करवी ते तो नीचे उतरवानुं पगथियुं
छे. हे भाई! तारे अविनाशी कल्याण जोईतुं होय ने भवनो नाश करवो होय तो पुण्य–पाप रहित चिदानंद
तत्त्वनी ओळखाण कर; ए सिवाय ईन्द्रना ईन्द्रासन पण अध्रुव छे, तेना शरणे चैतन्यनी शांति नथी. माटे
आत्माना ध्रुव चिदानंद स्वरूपने सत्समागमे समजवुं ते ज शांतिनो उपाय छे.