Atmadharma magazine - Ank 126
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २०१० : आत्मधर्म–१२६ : १२१ :
मानस्तंभ–प्रतिष्ठा–महोत्सव अने–
शुद्धनयना अवलंबननो उपदेश
[सोनगढमां मानस्तंभ–प्रतिष्ठा–महोत्सव प्रसंगे चैत्र सुद पांचमे पू. गुरुदेवनुं प्रवचन]
आचार्यदेव कहे छे के अहो! जीवोए कदी नहि
जोयेलुं एवुं आत्मानुं परथी भिन्न शुद्ध एकत्व
ज्ञायकस्वरूप हुं मारा आत्मवैभवथी देखाडुं छुं. जीवोने
अनंतकाळथी जे समजवानुं बाकी रही गयुं छे ते हुं
समजावुं छुं. संसारमां अज्ञानीओने बधुं सुलभ छे.
एकमात्र आत्मस्वभावनी समजण ज परम दुर्लभ छे.
मानस्तंभना महोत्सवमां मुक्तिनी छाप
जुओ, आ महोत्सवना दिवसो छे; अहीं मानस्तंभमां सीमंधर भगवाननी प्रतिष्ठा थवानी छे
तेनो आ महोत्सव चाले छे. आपणो मानस्तंभ ६३ फूट ऊंचो छे ने श्लाका पुरुषोनी संख्या पण बराबर
६३ छे. ए रीते मानस्तंभनी ऊंचाई अने श्लाका पुरुषोनी संख्या ए बंनेनो कुदरती मेळ थई गयो छे.
श्लाका पुरुषो मोक्षनी छापवाळा होय छे, तेओ नियमथी अल्पकाळमां मुक्ति पामनारा होय छे, तेओने
लांबो संसार होतो नथी; तेम अहीं मानस्तंभना महोत्सवमां मोक्षनी छाप लेवानी वात आवी छे.
मोक्षनी छाप कोई बीजा पासेथी नथी मळती, पण आत्मानुं जे परमार्थस्वरूप कहेवाय छे तेने जे जीव
समजे ते जीवने मोक्षनी छाप लागी जाय छे. आ वात समजे ते अल्पकाळमां जरूर मुक्ति पामी जाय छे.
पात्र थईने अंर्तस्वभावनी साची समजण वडे पोते ज पोताना आत्मामां मुक्तिनी महोर–छाप पाडे छे;
आत्मानुं अपूर्व भान थतां ज धर्मीने निःशंकता थई जाय छे के हवे अल्पकाळमां मारी मुक्ति छे. लोको
द्वारका वगेरेनी जात्राए जईने त्यां छाप पडावे छे अने तेमां जात्रानी सफळता माने छे, परंतु तेनाथी तो
आत्मानुं कांई हित नथी. अहीं तो आत्मा पोते पोताना स्वभावनो निःशंक निर्णय करीने सम्यग्दर्शन वडे
पोतामां एवी छाप पाडे छे के, अल्पकाळमां अवश्य मुक्ति थाय ज.
शांतिनुं स्थान क्यां छे?
जुओ भाई! शांति तो आत्माना स्वभावमां छे; आत्मानो स्वभाव त्रणेकाळ शांतिथी भरपूर छे, तेनी
प्रतीत करीने तेना अवलंबने ज शांतिनो अनुभव थाय छे, ए सिवाय बहारना बीजा लाखो उपायथी पण
जीवने साची शांति मळती नथी, केमके आत्मानी शांति आत्माथी दूर नथी, शांतिनुं स्थान आत्मामां ज छे.
हमणां (वीर सं. २४७९ ना फागण वद पांचमे) दक्षिणमां श्री बाहुबलि भगवानना ५७ फूट ऊंचा प्रतिमाजीनो
महामस्तकाभिषेक हतो, त्यांथी पाछा वळतां हजारो माणसो सोनगढ आवेला, तेमां घणा लोको कहेता हता के
“अहो! शुं ए प्रतिमानी सुंदरता!! ए भव्य प्रतिमानी मुद्रा जोतां ज चित्त शांत थई जतुं हतुं!” जुओ
भगवाननी वीतरागी मुद्रानी प्रशंसा–बहुमान अने भक्तिनो भाव तो समकीति धर्मात्मानेय आवे, परंतु
अंतरमां निजस्वभावनुं बहुमान राखीने तेमने तेवो भाव आवे छे, ते शुभभावने सर्वस्व नथी मानी लेता.
अने अज्ञानी तो त्यां ज सर्वस्व मानी ल्ये छे. प्रतिमाजीना वखाण करती वखते एवो