भाई! तारी शांति तो अहीं छे के त्यां छे? यथार्थ स्वरूपनुं भान राखीने ज्ञानी पण आरोपथी एम कहे के अहो!
सर्वज्ञ परमात्मानी परम उपशांत वीतराग मुद्रा देखतां अमारुं चित्त थंभी गयुं! अज्ञानी तो पोताना स्वभावने
भूलीने परमां ज सर्वस्व मानी ले छे एटले तेनो आरोप पण साचो नथी. जेवा सर्वज्ञ भगवान थया तेवुं ज
परिपूर्ण सामर्थ्य मारा आत्मस्वभावमां छे. आम निश्चयथी पोतानां आत्मानुं भान करे, अने शुभराग थतां
एकला परना ज बहुमानमां रोकाई जाय ने तेमां ज संतोष मानी ल्ये तो तेने आत्मानी शांतिनो जरापण लाभ
थाय नहि, ने संसार–परिभ्रमण माटे नहि. माटे अहीं तो आत्मानी अपूर्व समजणनी वातने मुख्य राखीने ज
बीजी वात छे.
संसारमां अज्ञानीओने बधुं सुलभ छे, एकमात्र आत्मस्वभावनी समजण ज परम दुर्लभ छे. तेथी श्री
आचार्यदेव करुणा करीने ते शुद्धआत्मानुं एकत्वस्वरूप दर्शावतां समयसारमां कहे छे के–
जदि दाएज्ज पमाण चुकिकज्ज छलं ण धेतव्वं।।५।।
तमे तेने प्रमाण करजो. आ देह–देवळमां रहेलो परंतु देहथी जुदो भगवान आत्मा ज्ञायकमूर्ति छे. क्षणिक राग–द्वेष
जेटलो ते नथी; राग–द्वेष तो अभूतार्थ छे–नाशवंत छे, ते स्वभावनी साथे एकमेक थई गयेलां नथी, माटे ते
राग–द्वेषथी रहित एवा एकाकार ज्ञायक स्वभावनी प्रतीत करो. अत्यारे अगियारमी गाथा वंचाय छे, तेमां पण
आचार्यदेव कहे छे के – अहो! शुद्धद्रष्टिथी जोतां एक ज्ञायकभावरूप आत्मा छे, ते ज भूतार्थस्वभाव छे, ने ते
भूतार्थस्वभावनी द्रष्टिथी ज आत्मानुं सम्यक्दर्शन थाय छे. –
आत्मस्वभावनुं अवलंबन कदी छूटतुं नथी, तेना परिणमनमां स्वभाव अने परभाव वच्चेनुं भेदज्ञान सदाय
वत्यां ज करे छे; राग थाय छे तेने जाणे त्यां ‘आ राग हुं छुं’ एवी आत्मबुद्धि थती नथी पण ‘अखंड
चैतन्यस्वभाव ते हुं छुं’ एवी अखंड द्रष्टि रहे छे. आनुं नाम भूतार्थनो आश्रय अथवा शुद्धनयनुं अवलंबन छे.
आश्रय धर्मीने कदी छूटतो नथी, तेनी प्रतीत खसती नथी; उपयोगमां भले सदा निर्विकल्पता न रहे, ने राग
तरफ के पर तरफ उपयोग होय, परंतु साधक जीवने द्रष्टिमां तो कदी पण अभेदस्वभावनुं अवलंबन छूटीने
भेदनी प्रधानता थती नथी. भूतार्थ स्वभावनी द्रष्टि ते ज सम्यग्दर्शन छे, जो ते द्रष्टि छूटे तो सम्यग्दर्शन रहेतुं
नथी; आ रीते भूतार्थस्वभावना आश्रये ज सम्यग्द्रष्टिपणुं छे. (–अपूर्ण)