सुख छे. जेम चणाना प्रत्येक दाणामां मीठाश भरेली छे, ते क्यांय बहारथी नथी आवती पण तेना स्वभावमां
भरी छे ते ज प्रगटे छे तेम दरेक आत्मा आनंदस्वभावथी भरेलो छे, तेमां अंर्तद्रष्टि करे अने परमांथी सुखनी
बुद्धि छोडे तो आत्मानुं साचुं सुख प्रगटे. ते सुख क्यांय बहारना संयोगमांथी नथी प्रगटतुं पण
अंर्तस्वभावमां छे ते ज प्रगटे छे.
न आवे. पोपट वगेरे पक्षीओ आकाशमां उडता आवीने सीधा झाड उपर जईने केरीनो स्वाद ल्ये अने कीडी
वगेरे प्राणीओ केरीनुं थड पकडीने उपर जईने स्वाद ल्ये. पंखी उपरथी उडता आवे ने कीडी नीचेथी धीमे धीमे
उपर जाय पण बंनेने केरीनो स्वाद तो सरखो ज छे. भले वार लागे पण थड तो आंबानुं ज पकडवुं जोईए.
आंबाना थडने बदले आकोलियानुं थड पकडे तो केरीनो स्वाद आवे नहि. कीडीने केरी खावी होय तो शुं करवुं?
के केरीनुं थड पकडीने केरीनो स्वाद लेवो. ए सिवाय बीजो रस्तो नथी. तेम जेने आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो
स्वाद लेवो होय तेणे शुं करवुं? के आत्माना ध्रुव स्वभावरूप थडने पकडीने तेनुं अवलंबन करवुं. तीर्थंकरो–
मुनिवरो तो उग्र पुरुषार्थ वडे चैतन्यनुं अवलंबन करीने आनंदनो भोगवटो करे छे, अने समकीति जीवो पण
चैतन्य स्वभावनुं अवलंबन करीने आनंदनो भोगवटो करे छे. जेने आत्मानुं साचुं–अविनाशी–परिपूर्ण सुख
जोईतुं होय तेणे देहादिथी तेमज पुण्य–पापनी वृत्तिओथी भिन्न चिदानंद स्वरूप आत्माने पकडवो जोईए, तेनी
रुचि अने ज्ञान करवुं जोईए. तीर्थंकरो अने मुनिवरो विशेष पुरुषार्थ वडे चैतन्यस्वरूपने शीघ्र पामीने
निर्विकारी आनंदनो अनुभव करे छे ने अल्पकाळमां केवळज्ञान तथा पूर्णानंद प्रगट करे छे. तथा जे जीवोथी
एटलो उग्र पुरुषार्थ न थई शके तेओने पण आ चैतन्य स्वभावनी वात प्रीतिथी श्रवण करी, तेना संस्कार द्रढ
करी, स्व–स्वभावनां निश्चय वडे सम्यग्ज्ञान प्रगट करवा ते ज सुखनो उपाय छे. तीर्थंकरोने माटे धर्मनो रस्तो
जुदो ने बीजा तुच्छ जीवोने माटे धर्मनो रस्तो बीजो–एम नथी; बधाय जीवोने माटे धर्मनो एक ज रस्तो छे.
तेने आ संसारमांथी छूटकारो थाय नहि. रागरहित निर्मळ चैतन्य स्वभाव छे ते मुख्य छे, तेने तो स्वीकारे
नहि अने रागने ज धर्म माने तो ऊंधी मान्यताथी कदी जन्म–मरण मटे नहि. जेम वेपारी साथे नामुं मेळवतां
कोई माणस चार–छ आनानी परचुरण रकमो तो स्वीकारे पण हजारो रूपिया रोकडा लीधा होय ते न स्वीकारे
तो ते वेपारीना देणामांथी छूटी शके नहि. तेम “हिंसा न करवी, दया पाळवी” एवी शुभरागनी वात तो
स्वीकारे, पण आत्मानो चिदानंद स्वभाव रागथी पार छे, रागथी तेने धर्म थतो नथी एवी मूळभूत वात
समजे नहि ने पुण्यने ज धर्म माने तो ते जीव संसार परिभ्रमणमांथी छूटी शके नहि. पुण्य–पापनी लागणीओ
थाय छे तो ते आस्रव–मलिनता–संसारनुं कारण छे. आत्मा शुद्ध आनंदमूर्ति चैतन्यकंद छे तेनी ओळखाण अने
बहुमान करीने तेमां लीनता करवी ते मुक्तिनुं कारण छे. आवा मुक्तिना कारणने तो जाणे नहि अने संसारना
ज कारणने मुक्तिनुं कारण मानीने सेवे तो ते जीवने चारगतिनुं परिभ्रमण कदी मटे नहि.
परिभ्रमण करता जीवोने एकला पुण्यभाव ज रहे एम पण बनतुं नथी. तेमज एकला पापभाव ज कायम रहे
एम पण बनतुं नथी. पण पुण्य–पापना भावो पलटाया करे छे. जुओ, पहेलांं संसारना वेपार–धंधानो
पापभाव हतो, ते पलटीने धर्मश्रवणनो शुभभाव थयो, वळी थोडीवारे ते पलटीने बीजो भाव आवशे. ए रीते
पुण्य–पापना भावो क्षणे क्षणे पलटी जाय छे, ते आत्माने शरणभूत नथी. जे जीव चैतन्यतत्त्वनी रुचि करतो
नथी अने पुण्यनी मीठाश सेवे छे तेने पुण्यना फळनां संयोगमां एकाकारबुद्धिथी तीव्र