तिर्यंचमां ने मनुष्यमां अनादिकाळथी अवतार धारण कर्या, अने तेना कारणरूप पाप तेमज
पुण्यभावो अनंतवार कर्या छे पण तेमां क्यांय आत्मानी शांति पाम्यो नथी. आत्मानी शांतिनी
जिज्ञासाथी हवे शिष्य पूछे छे के प्रभो! मने मारा आत्मानुं भान थाय अने शांति थाय एनो
उपाय शुं छे? आवुं पूछनारने आत्मानी आस्था छे, जेनी पासे पूछे छे एवा ज्ञानी गुरुनी
आस्था पण थई छे अने आत्मानुं स्वरूप समजवानी जिज्ञासा थई छे, एवा शिष्यने
आचार्यदेव समजावे छे के हे भाई! देहादिनो संयोग तेमज अवस्थानो क्षणिक विकार देखाय छे ते
तारा आत्माना स्वभाव साथे एकमेक थई गया नथी; क्षणिक संयोग अने विकारनी द्रष्टि
छोडीने, आत्माना भूतार्थ स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां भगवान आत्मा कर्मथी बंधायेलो नथी
तेमज विकार पण तेनी साथे एकमेक थई गयेल नथी. आवा भूतार्थ स्वभावनी द्रष्टिथी आत्मा
शुद्धस्वभावपणे अनुभवाय छे; ने तेमां अतीन्द्रिय शांतिनो अनुभव थाय छे; आ सम्यग्दर्शननी
रीत छे.
लक्षे थाय छे ने मारो स्वभाव तो असंयुक्त छे, रागथी पण मारो स्वभाव असंयुक्त छे. हे
भाई! जो तारे अनंतकाळनी भूख भांगवी होय ने धर्मनी शरूआत करवी होय, अपूर्व
आत्मशांति जोईती होय तो अंतरमां शुद्ध ज्ञानानंद स्वभावनुं अवलंबन कर. देव–गुरु–धर्म
प्रत्ये भक्तिनो आह्लाद आवे, भगवाननो जन्म थतां ईन्द्रोना आसन कंपायमान थाय ने
ईन्द्रो आवीने भक्तिथी नाची ऊठे. तीर्थंकरना जन्म पहेलांं पंदर मास अगाउ ईन्द्रो आवीने
भगवानना माता–पितानी सेवा करे, उपरथी रत्नोनी वर्षा करे छे. माता पासे आवीने कहे छे
के हे देवी! छ महिना पछी आपनी कुंखे त्रिलोकनाथ तीर्थंकरनो आत्मा आववानो छे. हे
माता! आप भगवानना ज नहि पण त्रणलोकना माता छो! हे रत्नकुंखधारिणी माता! आप
त्रिलोकनाथ तीर्थंकरने जन्म देनारा छो. आवो भक्तिनो भाव आवे, छतां ते वखते ते रागथी
पार चिदानंद स्वभाव उपर धर्मीनी द्रष्टि पडी छे. चिदानंद स्वरूप आत्माने केम प्राप्त करवो
तेनी आ वात छे. भगवान