Atmadharma magazine - Ank 127
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: १३४ : आत्मधर्म–१२७ : वैशाख : २०१० :
मानस्तंभ–प्रतिष्ठा–महोत्सव अने–
शुद्धनयना अवलंबननो उपदेश
[सोनगढमां मानस्तंभ–प्रतिष्ठा–महोत्सव प्रसंगे चैत्र सुद पांचमे पू. गुरुदेवनुं प्रवचन]
आचार्यदेव कहे छे के अहो! जीवोए कदी नहि जोयेलुं एवुं
आत्मानुं परथी भिन्न शुद्ध एकत्व ज्ञायकस्वरूप हुं मारा
आत्मवैभवथी देखाडुं छुं. जीवोने अनंतकाळथी जे समजवानुं
बाकी रही गयुं छे ते हुं समजावुं छुं. संसारमां अज्ञानीओने बधुं
सुलभ छे, एकमात्र आत्मस्वभावनी समजण ज परम दुर्लभ छे.
(गतांकथी चालु)
सम्यग्दर्शननो अफर उपाय
जुओ, आ समकीतनो पुरुषार्थ! आवो पुरुषार्थ पूर्वे कदी जीवे कर्यो नथी. कोई कहे के अमे
पुरुषार्थ तो घणो करीए छीए पण समकीत थतुं नथी. तो ज्ञानी कहे छे के अरे भाई! तारी वात
जूठी छे; यथार्थ कारण आपे अने कार्य न आवे एम बने नहि. जो कार्य नथी प्रगटतुं तो समज
के तारा प्रयत्नमां भूल छे. सम्यग्दर्शन थवानी जे रीत छे ते रीते अंतरमां यथार्थ प्रयत्न करे अने
सम्यग्दर्शन न थाय एम बने ज नहि. खरेखर अपूर्व सम्यग्दर्शननो साचो उपाय शुं छे ते जीवे
जाण्युं ज नथी, ने बीजा विपरीत उपायने साचो उपाय मानी लीधो छे. ज्यां उपाय ज खोटो होय
त्यां साचुं कार्य क्यांथी प्रगटे? माटे अहीं आचार्य भगवानने सम्यग्दर्शननो साचो अने अफर
उपाय बताव्यो छे. जो आ उपाय समजे अने आ रीते शुद्धनयनुं अवलंबन लईने अंतरना
ज्ञानानंदस्वभावने पकडे तो सम्यग्दर्शननो अपूर्व अनुभव अने भेदज्ञान जरूर थई जाय.
‘शुद्धनयनुं अवलंबन’ एटले शुं?
प्रश्न :– अहीं शुद्धनयनुं अवलंबन लेवानुं कह्युं परंतु शुद्धनय तो ज्ञाननो अंश छे, पर्याय
छे, शुं ते अंशना अवलंबने सम्यग्दर्शन थाय?
उत्तर :– शुद्धनयनुं अवलंबन खरेखर क्यारे थयुं कहेवाय? एकला अंशनो भेद पाडीने
तेना ज अवलंबनमां जे अटक्यो छे तेने तो शुद्धनय छे ज नहि; ज्ञानना अंशने अंतरमां वाळीने
जेणे त्रिकाळी द्रव्यनी साथे अभेदता करी छे तेने ज शुद्धनय होय छे, अने आवी अभेद द्रष्टि करी
त्यारे शुद्धनयनुं अवलंबन लीधुं एम कहेवाय छे. एटले ‘शुद्धनयनुं अवलंबन’ एम कहेतां तेमां
पण द्रव्य–पर्यायनी अभेदतानी वात छे; परिणति अंतर्मुख थईने द्रव्यमां अभेद थईने जे
अनुभव थयो तेनुं नाम शुद्धनयनुं अवलंबन छे, तेमां द्रव्य पर्यायना भेदनुं अवलंबन नथी.
जोके शुद्धनय ते ज्ञाननो अंश छे–पर्याय छे, परंतु ते शुद्धनय अंतरना भूतार्थ स्वभावमां अभेद
थई गयो छे एटले त्यां नय अने नयनो विषय जुदा न रह्या. ज्यारे ज्ञानपर्याय अंतरमां
वळीने शुद्ध द्रव्य साथे अभेद थई त्यारे ज शुद्धनय निर्विकल्प छे. आवो शुद्धनय कतकफळना
स्थाने छे; जेम मेला पाणीमां कतकफळ–औषधि नाखतां पाणी निर्मळ थई जाय छे तेम कर्मथी
भिन्न शुद्ध आत्मानो अनुभव शुद्धनयथी थाय छे, शुद्धनयथी भूतार्थ स्वभावनो अनुभव करतां
आत्मा अने