Atmadharma magazine - Ank 127
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २०१० : आत्मधर्म–१२७ : १३५ :
कर्मनुं भेदज्ञान थई जाय छे.
भवरोग मटाडवानी साची औषधि
जुओ आ साची औषधि! अनादिथी जीवने मिथ्यात्वरूपी रोग लागु पड्यो छे, ते आ शुद्धनयरूपी
औषधिथी मटे छे. स्वसन्मुख पुरुषार्थ वडे शुद्धनयनुं अवलंबन लईने शुद्धआत्मानो अनुभव करतां ज तत्काळ
भेदज्ञान थई जाय छे अने अनादिनो भ्रमणारोग मटी जाय छे. आ वात अपूर्व समजवा जेवी छे, आ समजीने
अंतरमां तेनो यथार्थ निर्णय करवो ते सम्यग्दर्शननुं कारण छे. खरुं तो आ ज करवा जेवुं छे, आ सिवाय बीजुं
तो बधुं थोथां छे, तेमां क्यांय आत्मानुं हित नथी.
सम्यग्द्रष्टि अने मिथ्याद्रष्टिनुं माप करवानी रीत
त्रिकाळी भूतार्थ स्वभावनुं अवलोकन करवुं ते ज सम्यक् अवलोकन छे; जेओ भूतार्थस्वभावनुं अवलंबन
करे छे तेओ ज सम्यक् स्वभावनुं अवलोकन करनारा सम्यग्द्रष्टि छे, आ सिवाय बीजा जेओ अभूतार्थनो आश्रय
करे छे एटले के निमित्तना–रागना–पर्यायना के भेदना आश्रयथी कल्याण माने छे–तेओ सम्यग्द्रष्टि नथी, केमके
तेओ आत्माना अखंड परिपूर्ण स्वरूपने नथी देखता पण क्षणिक अंशने ज देखे छे तेथी तेओ मिथ्याद्रष्टि छे.
सम्यक्त्व अने मिथ्यात्वनुं माप बहारनी क्रिया उपरथी के कषायनी मंदता उपरथी थई शकतुं नथी, पण
अंतरनी द्रष्टि क्यां पडी छे तेना उपरथी सम्यक्त्व के मिथ्यात्वनुं माप नीकळे छे. पुत्र मरी जाय त्यां समकीति–
ज्ञानीने शोक थई जाय ने आंखमां चोधार आंसुए रोतो होय, छतां ते वखतेय तेने द्रष्टिमां भूल नथी, मात्र
अस्थिरतानो राग छे तेनो अल्पदोष छे. अने अज्ञानी तेवा प्रसंगे कदाच न रोतो होय ने वैराग्यनी वात करतो
होय, छतां तेने द्रष्टिमां भूल छे, रागना आश्रयथी लाभ मानतो होवाथी तेने ऊंधी द्रष्टिनो अनंतो दोष छे. आ
अंतरनी द्रष्टिना माप बहारथी नीकळे तेवा नथी सम्यग्द्रष्टिने पोतानी भूमिकाना प्रमाणमां आर्त्त–रौद्र ध्यानना
परिणाम पण क्यारेक थई जाय, ते रोतो होय के लडाई वगेरे क्रियामां ऊभो होय, छतां ते वखतेय द्रष्टिमांथी
पोताना परमार्थ स्वभावनुं अवलंबन छूटयुं नथी एटले तेने द्रष्टिनो दोष नथी–श्रद्धामां भूल नथी, तेथी
मिथ्यात्वादि ४१ कर्मप्रकृतिओनुं बंधन तो तेने थतुं ज नथी. ने अज्ञानीने तो शुभपरिणाम वखतेय द्रष्टिना दोषने
लीधे मिथ्यात्वादि कर्मप्रकृतिनुं बंधन पण थया ज करे छे. धर्मीने जे राग–द्वेष थई जाय छे ते परना कारणे थता
नथी, तेमज स्वभावनी द्रष्टि छूटीने पण थता नथी, फक्त चारित्रना पुरुषार्थमां मचक खाई जाय छे. अज्ञानीने
एम लागे छे के बहारना प्रतिकूळ प्रसंगने लीधे ज्ञानीना परिणाम बगडया, पण ज्ञानीनी अंर्तद्रष्टिनी तेने खबर
नथी. अज्ञानी तो ते शुभाशुभ परिणाम वखते तेमां ज एकाकार थईने भूतार्थ स्वभावने भूली जाय छे, ने ज्ञानी
तो अंतर्दष्टि वडे पोताना भूतार्थ स्वभावने ते शुभाशुभ परिणामथी जुदो ने जुदो अनुभवे छे. बस! अंतरमां
चिदानंद भूतार्थस्वभावनो आश्रय न छूटवो तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. एक ने एक प्रसंगमां अज्ञानी शुभ–
परिणामथी शांति राखे ने ते ज वखते ज्ञानीने जराक खेदना परिणाम थई जाय, छतां ज्ञानीने तो ते वखते
अंतरमां भूतार्थस्वभावनी द्रष्टिथी सम्यक्त्वनुं परिणमन थई रह्युं छे, ने अज्ञानी तो भूतार्थस्वभावनुं भान पण
नथी तेथी तेने मिथ्यात्वनुं परिणमन थाय छे.
अनादिथी भवभ्रमण केम थयुं अने ते केम अटके?
हे जीव! अनादिथी तें तारा भूतार्थ स्वभावनो संग कदी कर्यो नथी, परना संगथी लाभ मानी–मानीने ज
तुं संसारमां रखडी रह्यो छे. असंयोगी चैतन्य स्वभावनो संग छोडीने निमित्तनो संग कर्यो तेथी पराधीन भावे तुं
संसारमां रखडयो. हवे स्वसन्मुख थईने तारा भूतार्थ स्वभावनो महिमा देख अने परना संगनी बुद्धि छोडीने
तेनो संग कर, तो ते भूतार्थ स्वभावना संगथी तारुं भवभ्रमण टळी जशे. जड कर्मे जीवने रखडाव्यो नथी, परंतु
जीवे पोते पोताना भूतार्थस्वभावनो आश्रय न कर्यो तेथी ज ते रखडयो छे एटले के पोते पोतानी भूलथी ज
रखडयो छे. पूजामां पण आवे छे के–
‘करम बिचारे कौन भूल मेरी अधिकाई’
–हंमेशा पूजामां ए शब्दो बोली जाय पण तेनो अर्थ शुं छे ते विचारे नहि अने कर्मना जोरने लीधे
संसारमां रखडयो एम अज्ञानी माने छे. पण अरे भाई! जो जड कर्म तने रखडावे तो तारुं रखडवानुं क्यारे