प्रथम तो वर्तमानमां सारुं नथी–हित नथी–सुख नथी, तेथी ते मेळववा मांगे छे. तो जे सुख–हित लेवा मागे छे
ते सुख अथवा हित क्यां छे? शेमांथी सुख लेवा मांगे छे? अहित टाळवा मांगे छे, तो ते अहित क्यां छे?
अने हित करवा मांगे छे, तो ते हित क्यां छे? ते जाणवुं जोईए. अहित कहो, अधर्म कहो के दुःख कहो, ते
आत्मानो असली स्वभाव होय तो कदी टळी शके नहि. अने जो संयोगमां अहित होय तो ते संयोग छूटतां
अहित छूटी जवुं जोईए. संयोगमां पण अधर्म नथी अने आत्माना स्वभावमां पण अधर्म नथी; अधर्म के
अहित ते आत्मानी क्षणपूरती विकृत दशा छे. अने आत्मानो मूळस्वभाव हितरूप छे. ते स्वभावना अवलंबने
ज अहित टळीने हितदशा प्रगटे छे. क्षणिक विकार ते ज पोतानुं पूर्ण स्वरूप छे एम मानवुं ते मोटो अधर्म छे.
क्षणिक विकार होवा छतां ते विकार रहित शुद्धस्वरूप छे ते कई रीते जणाय तेनी आ वात छे. भाई! क्षणिक
विकारनी द्रष्टि छोडीने, तारा त्रिकाळी स्वभावने द्रष्टिमां ले तो तारो आत्मा अबंधस्वभावी छे ते लक्षमां आवे
ने संसारनो नाश थईने मुक्तिना भणकार आत्मामां आवी जाय.
जुदो छे. क्षणिक संयोग तरफथी जोतां वर्तमानमां कर्मना संबंधवाळो देखाय छे पण तेना मूळ ज्ञायकस्वभाव
तरफ जईने जोतां ते कर्मना संबंध वगरनो छे. जेम कमळनुं पान पाणीना संयोग तरफथी जोतां तेने पाणी
साथे संबंध देखाय छे, पण कमळनो स्वभाव कोरो पाणीथी अलिप्त रहेवानो छे, ते स्वभावनी समीप जईने
जोतां ते कमळ पाणीथी स्पर्शायेलुं नथी, कमळनो स्वभाव तो पाणीथी अलिप्त ज छे; तेम क्षणिक कर्मना संबंध
अपेक्षाए जोतां आत्मा बंधायेलो देखाय छे, पण आत्मानो मूळस्वभाव तो कर्मना संबंध वगरनो अबद्ध छे,
एवा स्वभावनी सन्मुख लक्ष करीने जोतां भगवान आत्मा शुद्धस्वभावपणे अनुभवाय छे. एकली पर्याय
अने संयोग सामे जोईने अनादिथी पोताने अशुद्ध अने संयोगवाळो ज मान्यो तेथी संसारमां रखडयो छे. पण
जो अंतर्मुख थईने शुद्धस्वभावने द्रष्टिमां ल्ये तो अनादिनो मिथ्याभाव एक क्षणमां दूर थई जाय छे. एक
क्षणनी समजणथी अनादिनी अणसमजण दूर थई जाय छे. अनादिथी आत्माना यथार्थ स्वभावनी द्रष्टि जीवे
कदी करी नथी. हजी तो यथार्थ स्वरूप समजावनार साचा देव–गुरु–शास्त्रनी जेने ओळखाण नथी, तेना प्रत्ये
विनय–बहुमाननो भाव ऊछळतो नथी एवा जीवो तो व्यवहारथी पण भ्रष्ट छे. भले मोढेथी निश्चयनी वातो
करे, पण हजी व्यवहारमां साचा देव–गुरु–शास्त्रनो विवेक जेने नथी ते तो भ्रष्ट अने स्वच्छंदी छे. कोईकनी वात
चोरीने पोताना नामे चडावे अने गुरुनुं नाम छुपावे ते तो व्यवहारमां पण भ्रष्ट छे अने निश्चयमां पण भ्रष्ट
छे. भाई! दुनियामां वस्तु लेवा जाय तो दुकान शोधीने परीक्षा करे छे, तो धर्म जोईतो होय, तो ते धर्मनी दुकान
क्यां छे? धर्मनुं स्वरूप बतावनार देव–गुरु–शास्त्र केवा होय? ते परीक्षा करीने ओळखवुं