एवा कुदेव–कुगुरुने जे मानतो होय तेनी तो अहीं वात नथी, ते तो तीव्र मिथ्यात्वमां पडेला छे. अहीं तो जेने
साचा देव–गुरु प्रत्ये विनय बहुमान छे, अने भक्तिथी आवीने पूछे छे के प्रभो! आत्मानुं शुद्धस्वरूप छे ते कई
रीते जणाय? एवा जिज्ञासु शिष्यने अहीं आचार्यदेव समजावे छे. पाणीना संयोगमां रह्युं होवा छतां ते ज
वखते कमळना स्वभावनी समीप जईने जोतां तेनो स्वभाव पाणीथी अलिप्त ज छे. तेम भगवान आत्मा
अनादिथी कर्मना संयोगमां रह्यो होवा छतां तेना मूळ ज्ञानस्वभावने लक्षमां ल्यो तो आत्मा कर्मना संबंध
वगरनो छे. वर्तमान बंधायेली अवस्थाथी जोतां आत्माने कर्मनो संबंध अने बंधन छे, एटलो
निमित्तनैमित्तिक संबंध छे, परंतु आत्माना भूतार्थ एकाकार ज्ञायकस्वभावने लक्षमां लईने अनुभव करतां
तेमां कर्मनो संबंध छे ज नहि. क्षणिक अवस्थामां कर्मनो संबंध छे ते अभूतार्थ छे, एटले भूतार्थ स्वभावनी
द्रष्टिथी ते कर्मना संबंधथी रहित एवा शुद्ध आत्मानो अनुभव थई शके छे. जुओ, आ अनेकान्त!! क्षणिक
पर्यायमां विकार अने कर्मनो संबंध छे, अने ते ज वखते भूतार्थस्वभाव विकार वगरनो अने कर्मना संबंध
वगरनो छे, ते बंने प्रकारने लक्षमां लईने भूतार्थस्वभाव तरफ ज्ञान ढळी गयुं तेनुं नाम शुद्धनय छे, ते ज
अनेकान्तनुं फळ छे.
ज्ञानस्वभाव छे, कर्मना संयोगनी अपेक्षाए जोतां आत्मा बंधायेलो छे पण आत्माना ज्ञानस्वभावने लक्षमां
लईने जोतां तेमां कर्मनुं बंधन छे ज नहि. धर्मी जाणे छे के बंधन अवस्था जेटलो हुं नथी, हुं तो ज्ञानस्वभाव
छुं. सरोग अवस्था होवा छतां ते सरोग अवस्था वखते पण निरोग अवस्थानुं ज्ञान थई शके छे, सरोग
अवस्था ते निरोगअवस्थानुं ज्ञान थवामां रोकती नथी. तेम अवस्थामां सरोगता एटले विकार होवा छतां, ते
विकाररहित निर्दोष ज्ञानानंद स्वभाव हुं छुं–एवुं ज्ञान भूतार्थद्रष्टिथी थई शके छे. अने आवा शुद्ध आत्मानुं
भान होवा छतां भगवाननी भक्तिनो भाव आवे, मोटा हाथी लावीने भगवाननी रथयात्रा काढे, भक्तिथी
नाची ऊठे, आवो शुभराग आवे छतां धर्मीने अंतरमां पोताना शुद्ध स्वभावनुं भान खसतुं नथी. ईन्द्र
एकावतारी छे, तेने आत्मानुं भान होय छे ने एक भव करीने मोक्ष पामवाना छे, छतां तेने पण भगवानना
जन्म–कल्याणक वगेरे प्रसंगे भक्तिनो भाव ऊछळी जाय छे. ईन्द्रो आवीने भगवाननो मोटो जन्मोत्सव करे
छे, तेनो देखाव आजे थयो. अहीं तो स्थापना छे, पण एवुं जगतमां साक्षात् बनतुं आव्युं छे. अहो!
तीर्थंकरनो जन्म थाय त्यारे ईन्द्र आवीने महोत्सव करे, अने बाळक भगवानने हाथमां लईने भगवाननुं रूप
नीरखे त्यां आश्चर्य पामी जाय छे, हजार आंखो बनावीने भगवाननुं रूप नीहाळे छे, छतां तृप्ति थती नथी,
एवुं तो अद्भुत रूप होय छे. पूर्वे आत्माना भान सहितनी भूमिकामां एवो शुभभाव थयो तेना फळमां आ
शरीर मळ्युं छे. भगवाननो आत्मा तो अलौकिक, ने भगवाननुं शरीर पण अलौकिक होय छे. भगवानना
पंचकल्याणकनो महोत्सव अहीं जेवो ऊजवाय छे एवा महोत्सवो अनंतवार थई गयेला छे. महान संतो
मुनिओए प्रतिष्ठा–विधिना शास्त्रो रच्यां छे. अंतरमां चिदानंद स्वभावनुं भान होय अने आवा पंचकल्याणक
महोत्सव वगेरेनो भाव पण आवे एवी धर्मीनी भूमिका होय छे आत्मानुं भान थया पछी पूजा–भक्तिनो
भाव आवे ज नहि एम कोई कहे तो तेने धर्मनी भूमिकानुं भान ज नथी. अने एकला शुभरागने ज धर्म
मानी ल्ये तो तेने पण धर्मनुं भान नथी अहीं तो अपूर्व वात छे. क्षणिक विकार होवा छतां आत्मानो भूतार्थ
स्वभाव शुद्धचैतन्य छे तेमां ते विकार नथी, आवा भूतार्थ स्वभावनी द्रष्टिथी शुद्धआत्मानी अनुभूति प्रगट
करवी ते अपूर्व धर्म छे.